सरकारी हक हकूक और आम आदमी

हक हकूक शब्द का प्रयोग हमारे पहाड़ी क्षेत्रों में सम्पत्ति पर मालिकाना हक के लिए किया जाता है। वैसे हक हकूक का विशेष तात्पर्य पुस्तैनी चली आ रही सम्पत्ति से अधिक लिया जा सकता है। अब इसमें कृषि भूमि हो या घर या फिर कोई व्यावसायिक भूमि, जो पीढ़ियों से वारिसन चली आ रही हों ऐसी सम्पत्ति में उसके वारिसों का हक हकूक होता है।

कुछ माह पहले उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय के एक आदेश के बाद प्रदेश भर में भूचाल आया हुआ है। मामला यह है कि उच्च न्यायालय द्वारा सरकारी भूमि से अवैध कब्जों को हटाने के आदेश दिए गये थे। इस आदेश के बाद अलग अलग सरकारी विभाग अपनी भूमि से अवैध कब्जों को हटाने की कार्यवाही कर रहे हैं। इन विभागों में पी.डब्लू.डी., वन विभाग और राजस्व विभाग प्रमुख हैं।

सरकारी भूमि पर कब्जा करना और उसमें किसी भी प्रकार का निर्माण करना गैर कानूनी है, यह सब को पता है। लेकिन इसके बावजूद सरकारी भूमि में कब्जा होता है और धीरे-धीरे कब्जे के बाद पक्के निर्माण कर दिए जाते हैं। उत्तराखण्ड बनने के बाद राज्य में अभी तक बन्दोबस्ती नहीं हुई है। राज्य के उत्तर प्रदेश में रहते हुए आंखरी बार 12वीं बन्दोबस्त 1960 से 1964 के बीच उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा की गयी थी। इससे पहले 11वां भूमि बन्दोबस्त 1928 में गढ़वाल में इबट्सन के नेतृत्व में हुआ था।

इसके बाद बन्दोबस्ती लाने का प्रयास तो रहा दूर सरकारों ने इसका जिक्र तक नहीं किया। लेकिन राज्य में गाहे बगाहे बन्दोबस्ती लाने की मांग विभिन्न संगठनों, आंदोलन कारियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा उठाई जाती रही है। इसके बावजूद सरकारें इस मुद्दे पर खामोश ही रही।

आगामी 9 नवम्बर, 2023 को उत्तराखण्ड को प्रथक राज्य बने 23 वर्ष पूरे होने को हैं। इन 23 वर्षों में राज्य में बहुत कुछ बदला है। अगर कोई ईमानदारी से आंकलन करे तो उत्तराखण्ड के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक और भौगोलिक क्षेत्र में अविश्वसनीय परिवर्तन हुए हैं।

राज्य में नागरिकों की अवश्यकतायें बढ़ी हैं और इसके सापेक्ष आय के स्रोत कम हुए हैं। पहाड़ों में किसानों की कृषि भूमि को बेचने का गोरखधंधा अपने चरम पर है, नदियों की छांती में बुल्डोजर चलाकर खनन का क्रम अबाध रूप से जारी है, जंगलों को विकास के नाम पर काटा जा रहा है, बचे खुचे जंगल हर वर्ष आग में स्वाहा हो रहे हैं, पहाड़ के गांव मूलभूत आवश्यकताओं के अभाव में खाली हो रहे हैं, तराई की उपजाऊ जमीनों को उद्योग स्थापना और शहरीकरण की भेंट चढ़ा दिया गया। ऐसे में आम जन मानस अपनी बढ़ती जरूरतें कैसे पूरा करें? यह एक बड़ा सवाल है।

बदलती जरूरतों से और पेट की ज्वाला को शांत करने के लिए दो वक्त की रोटी कमाने के लिए लोगों ने बाजारों में, सड़कों के किनारों में छोटे छोटे फड़ और खुमचे बनाकर राहगीरों को चाय, पानी और खाना आदि उपलब्ध कराने का काम शुरू किया। किसी ने छोटा सा ढाबा खोल लिया और कोई सड़कों के किनारे टूरिस्ट सीजन में भुट्टे बेचकर ही अपने लिए रोटी का बन्दोबस्त करने लगा। फिर समय बदला और जरूरतें बदली, थोड़ा पैसा आया तो उन्हीं फड़ और खुमचों की जगह पक्के होटल और रेस्टोरेंटों का निर्माण कर लिया।

जब यह सब हो रहा था तो वही सरकारी विभाग और उसके अफसर जो आज इन निर्माणों को अवैध निर्माण की संज्ञा देकर ध्वस्तिकरण के लिए चिन्हित कर रहे हैं, यह सब मूक बधिर बने रहे। कुछों ने तो इन निर्माणों के बनने के दौरान घूस खाकर मूक स्वीकृति प्रदान की। पहाड़ों में जमीनों को बेचते वक्त सड़क से चिपकाकर फीता लगाने वाले उसी राजस्व विभाग के कर्मचारी थे जो आज लोगों को अवैध निर्माण को खाली करने और ध्वस्त करने के लिए धमका रहा है।

अवैध निर्माण के इस खेल में हमारे कथित नेताओं और हमारी सरकारों की भूमिका भी खूब रही हैं। जब भी अवैध निर्माणों को तोड़ने और खाली करवाने के आदेश होते, यह सब अवैध निर्माण करने वालों के मशीहा बन कर पहुंच जाते। आज स्थिति गंभीर है, जिन लोगों के निर्माण तोड़ने के आदेश हो चुके हैं वे धरना प्रदर्शन कर रहे हैं, फिर से नेताओं के दरबार में ध्वस्तिकरण की कार्यवाही को रूकवाने की मांग कर रहे हैं, उनका दावा है कि वह वर्षों से उन जगहों में काबीज हैं और अपनी आजीविका चला रहे हैं।

ध्वस्तिकरण के नोटिस चस्पा हो चुके हैं, जिनमें स्पष्ट लिखा है कि नोटिस मिलने के 3 दिनों के भीतर अतिक्रमणकारी स्वयं अतिक्रमण को हटा लें। वहीं लोगों को यह विकल्प भी दिया गया है कि यदि उसके द्वारा किया गया निर्माण अतिक्रमण नहीं है तो वह नोटिस मिलने के 3 दिनों के भीतर विभाग के समक्ष वैध दस्तावेज प्रस्तुत करे। ऐसा न होने पर फिलहाल ध्वस्तिकरण की कार्यवाही होना तय है।

वहीं अब गांवों में भी यह चर्चा है कि जल्दी ही गांवों के अंदर सिविल भूमि में हुए अवैध कब्जों और अवैध निर्माणों को भी हटाया जायेगा। इससे लोगों में एक अजीब डर का माहौल भी है, इस विषय पर कोई स्पष्ट जानकारी न तो कोई विभाग दे रहा है और न ही सरकार।

कुछ भी हो अगर वास्तव में अवैध निर्माण के ध्वस्तिकरण की प्रक्रिया को अंजाम दिया जाता है तो यह एक मिसाल होगी। यह जनता को झूठा आस्वासन देने वाले नेताओं के मुह में भी एक तमाचे के समान होगा। अवैध को वैध बनाने पर भविष्य में अन्य लोगों को भी इस दिशा में जाने के लिए प्रेरित करेगा।

बेहतर तो यह होगा कि राज्य में सरकार बन्दोबस्ती लाये और सख्त भू-कानून लागू किया जाये, जमीनों के विक्रय को तत्काल रोका जाये। इसके बाद सरकार राज्य के मूल निवासियों को अपने रोजगार स्थापित करने के लिए भूमि उपलब्ध कराये, जिसके लिए सरकार किराया वसूल करे। इसके लिए सरकार बिना किसी भेदभाव और पक्षपात के ईमानदारी के साथ अलग से नीति बनाए। इससे जहां बेरोजगारों को रोजगार मिल सकेगा वहीं सरकार की आय भी बढ़ेगी।

पंकज सिंह बिष्ट, सम्पादक

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