समय और माननीय के तुगलकी बयान

इस संसार में यदि किसी की सबसे अधिक कीमत है तो वह समय है। यह कई सारी चीजों की कीमत बढ़ाने में सक्षम है तो वहीं किसी की बढ़ी हुई कीमत को गिराने की ताकत भी रखता है। चाहे बाजार के शेयर हो या सोना या फिर सत्ताधारी सरकार और उसके नेता समय ही सबकी कीतम तय करता है। किसे उठाना है और किसे गिराना यह समय चक्र से तय होता है।

स्थनीय किसानों से ज्ञापन प्राप्त करते गणेश जोशी (कृषि मंत्री उत्तराखण्ड सरकार)

फोटो: स्थनीय किसानों से ज्ञापन प्राप्त करते गणेश जोशी (कृषि मंत्री उत्तराखण्ड सरकार)

हम अपने समय का कितना सदुपयोग करते हैं इससे हमारी व्यक्तिगत सफलता और असफलता तय होती है। लेकिन जब कोई व्यक्ति अपने व्यक्तिगत जीवन के दायरे से निकलकर सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करता है तो वहां यह मानक बदल जाता है। सार्वजनिक जीवन में सफलता और असफलता प्राप्त करने के लिए दूसरों के समय की कदर करना आवश्यक होता है। व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में सफलता और असफलता के मानक अलग जरूर हैं किन्तु दोनों में ही समय के साथ एक समानता है, वह यह कि बीत चुके समय को वापस नहीं लाया जा सकता। इंसान तो क्या भगवान भी बीते हुए एक सेकेण्ड के हजारवे हिस्से के बराबर समय को तक वापस (रिवर्स) नहीं कर सकते।

अजकल पहाड़ के किसानों का समय भी फल और सब्जियों की फसल कटाई का है। किसान के महिनों के इंतजार और मेहनत के बाद फसल कटाई या तुड़ाई का समय ही वह समय होता है जब उसे अपनी मेहनत का फल मिलता है, वह अपने और अपने परिवार के लिए आजीविका जुटा पाता है। किसानों को इस समय में खाने तक की फुरसत नहीं होती।

बाजार और मण्डी की बेरहम मानसिकता और मुनाफाखोरी के कारण पहाड़ के किसानों पर फिलहाल आफत बरस रही है। उन्हें उनकी मेहनत यानि फसल उत्पादों के दाम नहीं मिल पा रहे हैं। इससे उबरने के लिए किसानों ने मण्डी में लालाओं के हाथ जोड़े, मण्डी समिति के हाथ जोड़े, लेकिन परिणाम ढांक के तीन पात ही रहे। हार कर किसानों ने अपनी समस्या को अपने जन प्रतिनिधियों से कहा, लेकिन वहीं चुनावी वादों की तरह केवल आश्वासन ही मिला। मीडिया के माध्यम से बात सरकार तक पहुँची तो सरकार ने भी एमएसपी के नाम पर सेब और नाशपाती में 1 रुपये बढ़ाने की घोषणा कर दी। इसके बाद सी ग्रेट सेब के सरकारी रेट 12 रुपये जो नाशपाती के 7 रुपये प्रति किलोग्राम हो गये। प्रश्न यह है कि बाकी फल और सब्जियों के एमएसपी का क्या? वह कौन तय करेगा?

जिले के प्रमुख सेब उत्पादक क्षेत्र में बीते सप्ताह खबर आयी की सूबे के कृषि मंत्री भ्रमण पर निकले हैं, तो किसानों में एक ऊर्जा का संचार हुआ। आशा जगी कि कृषि मंत्री किसानों की समस्या को सुनेंगे, कुछ समाधान निकालेंगे और कोई चमत्कार होगा। अपना काम धाम छोड़, किसान कृषि मंत्री जी के इंतजार में सुबह से शाम तक रहे। अपने निर्धारित कार्यक्रम से कई घण्टों बाद ढलते दिन के समय कृषि मंत्री पहुँचे बाद में और जाने की बात पहले बोल दी। उन्होंने किसानों के पूरे दिन उनके इंतजार में बिताए गये समय की जरा भी चिन्ता नहीं की और कुछ ज्ञापनों को प्राप्त कर फोटो खिंचवाते हुये मंत्री जी अपने गनतव्य को निकल लिए। किसानों के हाथ लगी तो वहीं हमेशा की तरह निराशा।

अब पहाड़ में मण्डी स्थापित करने की बातें कही जा रही हैं। सुना है दो जगहें भी तय कर ली गयी हैं। दूसरी ओर राज्य गठन के 22 वर्ष बाद पहली बार प्रदेश सरकार द्वारा सेब नीति बनाने की पहल शुरू करने बातें कही जा रही हैं।

एप्पल मिशन तो पहले से ही राज्य में चल रहा है, जिसे संचालित करने वाले विभाग के निदेशक पर एफआईआर दर्ज कर मुकदमा शुरू किया जा रहा है। उत्तर भारत में चौबटिया गार्डन के नाम से प्रसिद्ध, राज्य का एक मात्र सेब और बागवानी रिसर्च सेंटर अब सफेद हाथी बन गया है।

हकीकत तो यह है कि चाहे वर्तमान सरकार हो या पूर्व सरकारें, इन सभी की प्रमुखता में उत्तराखण्ड की बागवानी और कृषि रहे ही नहीं। यही कारण है कि वर्तमान में किसानों की स्थिति हर प्रकार से खराब है। जिस एप्पल मिशन की बात सरकार कर रही है, उस योजना का लाभ लेने की क्षमता राज्य के सामान्य लघु व सीमांत किसान की है ही नहीं। योजना का लाभ वास्तव में जिन्होंने उठाया वह कौन हैं इसकी हकीकत फील्ड में जाकर पता की जा सकती है।

जिन लोगों ने योजना का लाभ लिया भी है उन्हें तकनीकी रूप से बेवकूफ ही बनाया गया है। बरसात के समय को छोड़कर पूरे वर्ष भर पीने के पानी के लिए भी संघर्ष करने वाले स्थानों में विदेशी रूट स्टॉक सेब के बगीचे लगवा दिए गये हैं। उन किसानों को अपने सेब के पेड़ों को जिंदा रखने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ता है यह उनकी आत्मा को पता है। स्थिति यह है कि अपनी पीड़ा को कहने में भी उन्हें शर्म आ रही है, उनकी स्थिति कुछ ऐसी कि ‘‘कहूं तो मां मरे, ना कहूं तो बाप कुत्ता खाय।’’

सब समय का चक्र है, अब देखना यह है कि राज्य में सेब नीति कब बनती है? क्या तब तक किसानों के पास उनकी जमीने रहेंगी भी या नहीं? या फिर यह सेब नीति भी कुछ एक प्रभावशील लोगों को ही फायदा पहुँचाने के लिए बनेगी?

पहाड़ों में बगीचे लगवाना आसान है लेकिन चुनौतियां इससे कहीं कठिन हैं, किसानों को तकनीकी रूप प्रशिक्षित करना, बंदर, सुवर और आवारा पशुओं से बगीचों और फसलों को बचाना, ओलावृष्टि, अतिवृष्टि, सिंचाई व्यवस्था का अभाव, सूखी जमीने और तेजी से बदलता मौसम और पर्यावरण। ये वह चुनौतियां हैं जिनको नजर अंदाज कर योजना बनाना सरकार और किसान दोनों के लिए ही हितकर नहीं होगा।

पंकज सिंह बिष्ट, सम्पादक

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