किसान फिर भगवान

कोरोना संकट से चल रही जद्दोजहद मालूम नहीं कब विराम लेगी। लेकिन इस लॉकडाउन ने यह साफ समझा दिया कि जीवन की असल आवश्यकताए बहुत सीमित हैं। पिछले 4 सप्ताह से हमको केवल खाने और भूख मिटाने की चिन्ता रही है। गाड़ी, बंगला, घूमना, नौकरी, शॉपिंग, पार्टी, उत्सव सब भुला दिया परिस्थितियों ने। आज देश दुनिया मे केवल और केवल खाने की चिन्ता है, जिसके पास खाना है वह आत्मविश्वास में है कि यदि कोरोना से संघर्ष और भी लंबा हुआ तो डटकर मुक़ाबला कर लेंगे। भारत जैसे देश में भी सरकार यदि यह निर्णय ले पायी तो इसका एकमात्र कारण था कि हमारे पास अन्न का पर्याप्त भण्डार था। दूसरे चरण के लॉकडाउन की घोषणा करते हुये जिस तरह प्रधानमन्त्री जी ने भरोसे से अपना सम्बोधन दिया उसका आधार केवल भारत का किसान था। जिसने देश के अन्न भण्डार को भर कर यह शक्ति दी है।

संकट आते ही जिस तरह तमाम लोगों ने मदद के हाथ बढ़ाए उससे होसला तो बढ़ता ही है एक मानसिक सुरक्षा भी मिलती है। लेकिन हाड़ तोड़ मेहनत करने वाले देश के किसान ने जो दिया उससे आज समस्त देश किसान का ऋणी है। पैसे से अनाज, राशन खरीद जा सकता है लेकिन पैदा नहीं किया जा सकता। आगे भी जिस तरह देश के किसानों ने फिर अन्न भंडारों को भरने की तैयारी कर ली वह हिम्मत को दुगुना कर देता है।

विधायकों, सांसदों ने अपनी निधि की राशि दे दी। लेकिन जितना महिमा मंडन इस त्याग किया गया उससे कहीं बढ़कर है किसान का त्याग। सांसद या विधायक निधि कहाँ से आती है जनता से। उसमे कोई भी परिश्रम हमारे सांसद नहीं करते। लेकिन जो अन्नहममरे किसानों ने देश के भंडारों में दिया है, उसमें उसका अथक श्रम होता है। तपती धूप, धूल के थपेड़े, सर्दी की ठिठुरन, बरसात का सैलाब, अपने आराम की तिलांजलि पता नहीं क्या-क्या झोकता है देश का किसान अन्न का एक-एक दाना उगाने में। कभी किसान के जीवन की दृष्टि देखें जो अच्छी फसल तब कहता है जब वह अपने परिवार की आवश्यकता से अधिक ओरों के लिए उगाता है। फिर भी देश का किसान आत्महत्या के लिए विवश। यह सोचने का समय और विषय है कि यदि किसान अपनी ज़िम्मेदारी से विमुख हो जाय तो क्या दशा होगी। किसान जो श्रम के साथ एक विराट जीवन दर्शन का भी वाहक होता है वह फसल बोता है तो कहता है कि धरती का हिस्सा दे रहा हूँ और जो उगता है उसे संतोष के साथ स्वीकार कर लेता है। जीवन में यह समर्पण और आत्मसंतोष का भाव और कहाँ दिखता है।

ऐसी मुसीबत के समय किसी गरीब को थोड़ा सा राशन देते समय उसकी फोटो को दुनिया में फैलाने की वर्तमान मानसिकता पता नहीं किस लोक के लिए यह यश कमाना चाहती है। हद तो तब हो रही है कि लोग रासायनिक छिड़काव के डिब्बों में अपना नाम लिखना नहीं छोड़ रहे हैं, क्या यह हमारी संकुचित मानसिकता को नहीं दर्शाता कि हमने इस मुसीबत को अपना नाम भुनाने का माध्यम बना लिया। वैसे भी हमारी पोराणिक मान्यताओं में गुप्तदान को श्रेष्ठतम बताया गया है। जिस दान या सेवा कर्म का बखान स्वयं होने लगे वह उसे क्या कहें समझ से परे है। हमारा फलसफा तो था नेकी कर दरिया में डाल। एक किसान अपने खेत में अपने श्रम और प्रकृति के साम्य से जो उगाता है उसे तो पता नहीं देश के कितने परिवार भोगते हैं, वह तो कभी ढिंढोरा नहीं पीटता।

आज समय है कि हम किसान को प्रतिष्ठित करें, श्रम को महत्व दें, खेती किसानी को राजकीय संरक्षण दें। किसान के हक और हकूक की बात करें। हमार किसान यदि संतुष्ट होगा तो देश स्वाभाविक उन्नति करेगा। उद्धयोग आधारित अर्थव्यवस्था आज चारों खाने चित्त है। भारत कृषि प्रधान देश कृषि ही हमारी समृद्धि का आधार हो सकती है। आज जिस तरह की वैश्विक परिस्थितियाँ हें उसमें आगे भी इस तरह के संकट आने स्वाभाविक हैं क्योंकि हमने प्रकृति को आक्रोशित किया है। ऐसे में आने वाली चुनौतियों  से भी हमें देश का किसान ही निकलेगा। जय किसान।

आलेख:

नैन सिंह डंगवाल

सामाजिक लेखक व विचारक

फोटो: Rahul Kotiyal

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