कोरोना एक संकट- हजार सबक | Corona aek sankat hajaar sabak

कोरोना संकट से जूझ रहे विश्व ने अपना बहुत-कुछ खो दिया, और जारी संघर्ष में अभी भी बहुत कुछ दांव पर है। यह एक ऐसा संकट है जिसने मनुष्य की जिजीविसा को नए आयाम दिये। जीने की इच्छाशक्ति, संघर्ष करने का आत्मबल, समस्या के समाधान करने के प्रयत्न सम्पूर्ण विश्व में मानव की श्रेष्ठता को स्थापित कर रहा है। यह अस्तित्व का ही संकट नहीं है बल्कि परीक्षा है संघर्ष शक्ति की, मानवीय आत्मबल की और जीने की दृढ़ ईच्छाशक्ति की।

“कोरोना” एक संकट- हजार सबक

मानव निर्मित व्यवस्थायेँ और अर्जित प्रगति आज औंधे मुह है।ऐसे में कोरोना से कुछ सबक मानव जाति को भविष्य के लिए लेने ही होंगे। पूरे विश्व को बाजार के रूप में देखने और ग्लोबलाइज़ेशन व लिब्रलाइजेशन के बावजूद पूरी दुनिया में अंतराष्ट्रीय सम्बन्धों में ठहराव सा आ गया है।

कोरोना संकट ने कुछ नए शब्द हमें दिये जिनको हमें नए अर्थ तथा संदर्भ में अंगीकार करना है- सोशियल डिस्टेन्सिंग, कुरयाटीन, स्टे होम आदि।

दुनिया में यहबात उजागर हो गयी कि कोई भी महाशक्ति नहीं है, साथ ही यह भी साफ हो गया कि महाशक्तियों का अनुसरण करने की विकासशील देशों की आपाधापी खोखली ही है। यह भी साफ हो गया कि जो भी हमने खोजा उससे इस महामारी का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता बल्कि जो हम भूल चुके हैं उसे पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता है।

वर्तमान बाजार आधारित अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा गयी है, केवल अर्थव्यवस्था के पारम्परिक तरीके ही लोगो को सहारा और विश्वास दे रहे हैं। ऐसे मे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने की प्रबल आवश्यकता सबको साफ समझ में आ रही है।

पहली बार भारतीय पारम्परिक तौर-तरीकों को विश्व पटल पर प्रतिष्ठा मिली है और उनकी वैज्ञानिकता को भी लोग समझ रहे हैं। जैसे अभिवादन, नाद, निनाद, योग, जीवन शैली आदि। इसके साथ ही यह भी माना गया कि भारतीयों की शारीरिक रोगप्रतिरोधक क्षमता विश्व के अन्य देशों के मुक़ाबले बेहतर है। अगर ये वास्तविकता है तो इसके कारणों को और गहराई से खोजा जाना चाहिए।

दुनिया के सभी बड़े शहरों में तबाही आई लेकिन गावों में एक हद तक लोग अधिक सुरक्षित और आश्वस्त नजर आए। यह संघर्ष संषाधन और तकनीक का नहीं संयम और आत्मबल का था। तो क्या गाँव का तथाकथित अभाव भरा जीवन लोगों को संयम और आत्मशक्ति प्रदान करता है जो कि संकट काल में सबसे अहम है। जिस तरह से समूचा पढ़ा-लिखा वर्ग पीड़ित और तनावग्रस्त था उससे यह भी उजागर हो ही गया कि हमारी वर्तमान शिक्षा-संस्कार की व्यवस्था लोगों को आपदा में कैसे संघर्ष करें, अपना आत्मबल कैसे बनाए रखें यह नहीं सिखा पा रही है।

“कोरोना” एक संकट- हजार सबक

भारत जैसे विशाल राष्ट्र में असंगठित क्षेत्र में कार्यरत वर्ग के जीवन की सच्चाई और उसकी कठिनाई उजागर हुई। भले राजनैतिक लोग कितने  ही बातें करें आंकड़ों में कुछ भी कहा जाय किन्तु यह सच्चाई जग जाहीर हो गयी कि भारतीय राजनयिकों ने इस वर्ग के बारे में कुछ नहीं सोचा। इस वर्ग के श्रम का दोहन किया गया केवल पूजीपतियों के लाभ के लिए। जीवन के भावी संघर्ष में भी इसी वर्ग को सबसे अधिक जूझना है।

इस संकट के दौरान सम्पूर्ण भारतीय समाज के मिले-जुले व्यवहार उजागर हुये। कहीं हजारों लोग मदद के लिए आगे आए, लोगों ने संकट से जूझ रहे लोगों को सिद्धत से मदद की, अपनी मानवीय, सामाजिक तथा राष्ट्रीय ज़िम्मेदारी का परिचय दिया। बेसहारों को सहारा दिया। वही बाज़ारों में लूट-पाट, जमाखोरी के भी उदाहरण मिले। शायद बाजार का चरित्र ही यही हो जिसे इंसान की इंसानियत नहीं बस उसकी जेब का पैसा और अपना मुनाफा दिखता है।

बाजार इतना जालिम हो जाएगा शायद इसीलिए गांधी जी ने भी इसका विरोध किया था। ऐसे में यह चिंतन का विषय हो जाता है कि ऐसी त्रासदी के समय भी मनुष्य अपने कर्तव्य तथा दायित्व को क्यों नहीं समझ पाता है? साथ ही यह भी सोचा जाना चाहिए कि मदद के लिए आगे आने वाले लोग, दूसरों के दुखों और परेशानियों को बांटने वाले ये लोग इसी समाज में रहते ये कैसे कर पाये। इन लोगों में ये संस्कार कैसे आए। किन संस्थाओं तथा समाज की प्रक्रियाओं से आज भी लोगों में यह मूल्य जीवित हैं। यह निश्चित ही शोध का विषय है जो शायद हमें कोई नयी दिशा दे सके। और शिक्षा संस्कार की परम्परा को नए आयाम दे सके।

पहली बार सम्पूर्ण विश्व में मानव के प्राकृतिक संबंध की आवश्यकता विचार और चिंतन के केन्द्र में है। जो भविष्य में बड़े बदलाओं के संकेत है। यह मानव जाति के ऊपर है कि वह इस सबक को किस रूप में स्वीकार करती है और आगे के किस रास्ते को अपनाती है।

आज दुनिया में कितनी ही भौतिक प्रगति हुई हो, तकनीक और प्रोद्योगिकी में हम कितने आगे पहुंचे प्रतीत होते हों लेकिन यह भी सच्चाई उजागर हो गयी कि दुनिया की सभी शक्तियाँ इस संकट को झेलने हेतु मानसिक और व्यावहारिक रूप से तैयार नहीं थे।

इस संकट ने लोगों की जिजीविषा को नए रूप में सबके सामने प्रकट किया। ऐसे संकट में भी लोगों ने दुनिया के कोने-कोने से अपनी रचनात्मकता, क्रियाशीलता से सबके साथ जुड़े रहने का उपाय सोचा। कई हजार विडियो, पोस्ट शोषल मीडिया के माध्यम से हम सबके साथ साझा हुये जिन्होने लोगों के कष्टों, वेदनाओं को तो पहुचाया ही, साथ ही हसने-गुदगुदाने और रोमांचित करने वाले तमाम वीडियो शेयर हुये जो तकलीफ़ों को भुलाने या कम करने में सहायक थे। और जीने की उम्मीद दिखते थे। ऐसे दौर में एक वर्ग वह भी था जो गलत तथा तथ्यहीन सूचनाओं से लोगों को दिग्भ्रमित कर रहे थे। शायद यह मिला जुला रूप ही संसार है, यही उसका वैविध्य जो हमको अच्छा-बुरा पहचानने में सहायक भी होता है।

कोरोना संकट के इस दौर में भी रूढ़िवाद,परंपरावाद ने अपने स्थापित करने प्रयास किया, कई बाबा, मौलवियों ने भी अपने-अपने तरीके से कोरोना को चुनौती देने का दावा अवश्य पेश किया किन्तु वर्तमान वैज्ञानिक सोच और समझ के विस्तार से यह शोर पूरी तरह दब गया। जो स्वाभाविक भी था और अच्छा भी।

पूरे संकट को धार्मिक उन्माद में बदलने की राजनैतिक प्रवृत्ति भी उजागर हुई। यह साफ हो गया कि आज भी धार्मिक उन्माद और राजनैतिक स्वार्थ साधना इस हद तक गिर चुकी है कि मानवता के संकट के इस दौर में वह स्वयं के निहितार्थ ढूंढ रही है।

कोरोना संकट के इस काल में हमने देखा कि गाँव का जीवन अपनी समाजिकता, जीवटता तथा अच्छाइयों के साथ अधिक मजबूती के साथ संघर्षरत थे और यह भी साफ दिखता है आगे को भी गाँव खुद को इस संकट से ऊबार लेंगे।

व्यवस्थागत नजरिया भी उजागर हुआ जो आम और खास में बंटा दिखा। इस पूरे संकट में विदेशों से आने वाले लोगों के लिए खास इंतजामात किए गए जबकि आम आदमी पूरे देश में दर-बदर भटकता व बिलखता देखा गया।

पहली बार परिवार जैसी महत्वपूर्ण सामाजिक संस्था का महत्व व्यापक रूप से स्थापित हो पाया। जहां आंतरिक एवं सम्बन्धों में निहित सुरक्षा ने एक दूसरे को सहारा दिया। शायद इस संकट के बाद परिवार फिर खड़े हों और उसका समाज में एक खास स्थान स्थापित हो सके। और यह भी साफ हो गया कि संकटकालीन स्थितियों परिवार का सहारा किस तरह लोगों को जोड़ता है और मानसिक मजबूती देता है, मानवीय संवेदनाओं को भी इस संकट ने नयी पहचान दी है।

इस संकट से यह भी साफ हो गया कि इंसान की आवश्यकताए बहुत सीमित हैं बाजार का जो हव्वा खड़ा किया गया है वह केवल हमारा भ्रम है। व्यर्थ की भागदोड़ से जीवन नीरस और अर्थहीन हो जाता है।

खैर जो भी हो यह एक ऐसा संकट है जिसने पुलिस के डंडे भी दिखाये और पुलिस को गाते हुये भी दिखाया, चिकित्सा क्षेत्र में अपना सम्मान खो चुके डॉक्टर और चिकित्सकर्मी पुनः देवदूत बनकर खड़े रहे। उनका सम्मान और गौरव लौटा है। इससे यह भी उम्मीद लौटी है की शायद भविष्य मे शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण आवश्यकताओं मे देश को और सम्पन्न बनाने का प्रयास हो।

नैन सिंह डंगवाल

सामाजिक विचारक व लेखक

सुनकिया (नैनीताल)

Nain Singh Dangwal
Nain Singh Dangwal

Leave a Comment