सघन बागवानी तकनीक से जलवायु परिवर्तन के बाद भी सेब की खेती कैसे करें (विशेषज्ञ की राय)| High Density Apple Gardening Techniques

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अगर आप भी सेब की खेती करते हैं और आप एक बागवान हैं या अगर आप भी सेब की बागवानी सुरू करने पर विचार कर रहे हैं तो यह आलेख आपके लिए बहुत काम का हो सकता है। बदलती जलवायु और पर्यावरणीय परिस्थितियों के बाद भी सेब के बागवानी कार्य को कैसे जारी रखा जाय? सेब की खेती करने के लिए हमारे पास किस प्रकार के ताकत व अवसर हैं? सेब की खेती को बेहतर बनाने में आने वाली बाधाऐं और हमारी कमजोरियां क्या हैं? हम अपने इसी डर और कमजोरी को अपनी ताकत बनाकर सेब उत्पादक बनने के अवसर का लाभ कैसे ले सकते हैं? 

इन सब प्रश्नों के उत्तर हम आपको डॉ. नारायण सिंह जी बागवानी विशेषज्ञ टेरी सूपी (The Energy and Resources Institute) की कलम से निकले इस आलेख के माध्यम से देने का प्रयास करेंगे। आशा है आपको यह आलेख पसंद आयेगा और आप इसमें दी गयी जानकारी से लाभांवित होंगे। 

सेब की खेती प्रचीन समय से ही दुनियाँ के कयी देशों में की जाती है। पूरे विश्व में फलों की बागवानी को देखा जाय तो केले, संतरे और अंगूर के बाद सबसे ज्यादा फल उत्पादन में नम्बर सेव का ही आता है और इसकी 100 से भी अधिक किस्मों का उत्पादन व्यावसायिक रूप से किया जाता है। 

भारत में सेब की खेती उत्तर पश्चिम के हिमालयी राज्यों में व्यापक रूप में की जाती है। जिसमें उत्तराखण्ड, हिमांचल प्रदेश, कश्मीर आदि प्रमुख हैं। चूँकि सेव की खेती एकल रूप में की जाती है तो इसमें रोग और व्याधियों का प्रकोप होने की संभवनाऐं भी अधिक होती हैं। सेब की खेती में लगभग 93 प्रकार की बीमारियां और 122 प्रकार के कीड़े मकोडो़ का प्रकोप देखा गया है। जिसके कारण फसल उत्पादन में कमी, फल के आकार में गिरावट एवं अन्य कयी प्रकार के नुकसान होते हैं।

वर्तमान में हिमालय एवं हिमालयी राज्यों में पारिस्थितिक तंत्र वृहद स्तर पर पर्यावरणीय असंतुलन को झेल रहा है। जिसके कारण शीत ऋतु का कम होना, असमय तूफानों का आना, असमान बारिस होना, पाले की अधिकता, तापमान का तेजी से बढ़ना, वर्फबारी का कम होना आदि प्रभाव देखने को मिल रहा है। इन सबका सीधा असर हिमालयी जैव विविधता एवं हिमालयी राज्यों में कृषि एवं बागवानी में दिखाई दे रहा है। 

आंकडों के आधार पर देखा जाय तो उत्तराखण्ड में लगभग 50 प्रतिशत से अधिक सेब का उत्पादन पिछले कुछ दशकों में गिर गया है। जलवायु परिवर्तन का सेब की खेती में पड़ने वाला असर हिमांचल एवं जम्मू कश्मीर में भी दिखाई देता है। जलवायु परिवर्तन के कारण जैसे ही सेब की खेती में प्रभाव पड़ा इन राज्यों के किसानों ने सेब के स्थान पर अन्य वैकल्पिक फसलों के उत्पादन की ओर रूख किया है। 

जिन स्थानों में औसत वार्षिक तापमान में वृद्धि हुई है वहाँ किसानों ने सेब के स्थान पर अन्य फसलों आडू, पुलम आदि को उगाना प्रारंभ किया है। सेब उत्पादन में गिरावट होने का दूसरा सबसे बड़ा कारण हिमपात का कम होना भी है। पिछले कुछ दशकों में हिमपात में भारी गिरावट दर्ज की गयी है, जिससे न केवल उत्तराखण्ड के सेब उत्पादन वाले क्षेत्रों में उत्पादन में कमी आयी है वही दूसरी ओर इसके कारण सेब की खेती में बिमारियों का प्रकोप भी अधिक हुआ है।

इसका प्रत्यक्ष उदाहरण नैनीताल जनपद के रामगढ़ एवं धारी विकास खण्डों में देखा जा सकता है। कभी सेब के लिए प्रसिद्ध इस क्षेत्र में 60 प्रतिशत से अधिक सेब के बागीचों को बागवानों ने आडू और पुलम के बागीचों में परिवर्तित कर दिया है। उत्तराखण्ड में सेब उत्पादक जिलों में प्रमुख रूप से उत्तरकाशी, नैनीताल, चमोली, टिहरी के साथ ही देहरादून के कुछ क्षेत्र आते हैं।

यदि परम्परिक किस्मों की बात की जाय तो उत्तराखण्ड में अरली सनबेरी, फैंनी, बिनोनी, चौबटिया प्रिंस, रैड डेलिसियस, स्टारकिड डेलिसियस, मैक्टोस, कार्डलेण्ड, गोल्डन डेलिसियस, रायमर आदि हैं। जो कि वर्तमान में प्रलन से बाहर हो गयी हैं। इन प्रजातियों का खत्म होने का कारण प्रमुख रूप से जलवायु परिवर्तन, तकनीकी ज्ञान का अभाव, बागों का अकुशल प्रबंधन रहा है। 

उत्तराखण्ड में यदि सेब की तुलना में अन्य फलों का उत्पादन देखा जाय तो आडू का उत्पादन प्रति हेक्टेयर 5.29 मिट्रिक टन, नाश्पाती का उतपादन प्रति हेक्टेयर 6.70 मिट्रिक टन है। जबकि सेब उत्पादन केवल प्रति हेक्टेयर 2.70 मिट्रिक टन ही है। सेब उत्पादन का क्षेत्र लगभग 33888 हेक्टेयर है जबकि कुल उत्पादन लगभग 92000 मिट्रिक टन है।

इसके उलट अगर हिमांचल प्रदेश को देखा जाय तो आज सेब उत्पादन में हिमांचल प्रदेश ने अपनी एक अलग पहचान स्थापित की है। यहाँ संपूर्ण फल उत्पादन का 81 प्रतिशत केवल सेब उत्पादन होता है। जिससे वार्षिक लगभग 3600 करोड़ रूपये से अधिक का करोबार किया जाता है। हिमांचल में सेब का औसत उत्वादन प्रति हेक्टेयर 11 मिट्रिक टन तक है, जबकि अन्य देशों में प्रति हेक्टेयर सेब का उत्पादन 40 मिट्रिक टन से भी अधिक है।

उत्तराखण्ड में सेब बागवानी की वास्तविक स्थिति को समझने के लिए नैनीताल जनपद में विस्तृत रूप से अधतन स्थिति को समझने का प्रयास किया गया है। उत्तराखण्ड में यदि सेब उत्पादन के इतिहास में नजर डाली जाय तो सर्व प्रथम इस क्षेत्र में सन् 1869 में अंग्रेजों ने अल्मोड़ा जिले के चौबटिया में वन विभाग के अंर्तगत शोध नर्सरी के लिए सेब लगाया था। 

उत्तराखण्ड में यदि सेब उत्पादन के इतिहास में नजर डाली जाय तो सर्व प्रथम इस क्षेत्र में सन् 1869 में अंग्रेजों ने अल्मोड़ा जिले के चौबटिया में वन विभाग के अंर्तगत शोध नर्सरी स्थापित कि थी। इस शोध केन्द्र का इंचार्ज सबसे पहले क्रू नामक ब्रिटिस अधिकारी को बनाया गया था। वह यूरोप से विभिन्न प्रकार की सेब की किस्मों को यहाँ लाये और उन्हें यहाँ उत्पादन के लिए लगाया।

इस शोध केन्द्र का इंचार्ज सबसे पहले क्रू नामक ब्रिटिस अधिकारी को बनाया गया था। वह यूरोप से विभिन्न प्रकार की सेब की किस्मों को यहाँ लाये और उन्हें यहाँ उत्पादन के लिए लगाया। सकारात्मक परिणामों के फलस्वरूप् सन् 1952 में इस उद्यान को पर्वतीय फल अनुसंधान केन्द्र बनाया गया। ऐतिहासिक रूप में यह केन्द्र भारत का सबसे पुराना शोध केन्द्र है। इस केन्द्र ने सेब प्रजाति की गुणवत्ता सुधार में एक अतुलनीय योगदान दिया है। 

नैनीताल जनपद में सेब उत्पादन प्रमुख रूप से रामगढ़, नथुवाखान, सतबूंगा, चौखुटा, सुन्दरखाल, मनाघेर, धानाचूली, आदि में होता है। सेब उत्पादन की वर्तमान स्थिति के अध्ययन के लिए उक्त गाँवों में से धानाचूली में एक विस्तृत अध्ययन किया गया। यह गाँव समुद्र तल से 2040 मीटर की ऊचाई पर स्थित है। इस पूरे गाँव का क्षेत्रफल लगभग 230 हेक्टेयर है तथा गाँव की जनसंख्या 1850 है। यहाँ का औसत तापमान न्यूनतम 10°C से अधिकतम 27°C तक रहता है। 

अध्ययन में पाया गया कि वर्तमान में कुल कृषि भूमि में से 19.4 हेक्टेयर जो कि कुल भूमि का 8.43 प्रतिशत है का प्रयोग कृषि व बागवानी से इतर अन्य कामों में किया जा रहा है। इससे यहाँ के बागवानी क्षेत्र में भी बदलाव आया है। सेब उत्पादन के वर्तमान परिदृश्य एवं भविष्य की संभावनाओं को समझने के दौरान SWOT विशलेषण किया गया। इस अध्ययन में सेब व उत्पादन के परिपेक्ष में किसी क्षेत्र विशेष की ताकत, कमजोरी, अवसरों एवं जोखिमों का आंकलन किया जाता है। 

सेब उत्पादन की ताकत को देखा जाये तो उत्तराखण्ड में इसकी सर्वांधिक महत्ता दिखती है। इसका प्रमुख कारण यहाँ की भौगोलिक परिस्थितियां एवं अधिकतर पर्वतीय क्षेत्र का होना है। कुमाऊँ मंडल के नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, चम्पावत, बागेश्वर तथा गढ़वाल मंडल के टिहरी, पौढ़ी, चमोली, रूद्रप्रयाग, उत्तरकाशी एवं देहरादून जिलों में सेब उत्पादन की अपार संभावनायें हैं।

क्रमवार यदि देखा जाय तो सेब उत्पादन एवं क्षेत्र विकास हेतु ताकत, कमजोरी, अवसरों एवं जोखिमों का आंकलन निम्न प्रकार से है-

सेब उत्पादन के लिए उत्तराखण्ड की ताकत या शक्ति-

  • पूर्व से ही एक सेब उत्पादक होना तथा सेब उत्पादन का एक बड़ा अनुभव।
  • समृद्ध जीन बैंक का होना जैसे अरली सनबेरी, फैंनी, बिनोनी, चौबटिया प्रिंस, रैड डेलिसियस, स्टारकिड डेलिसियस, मैक्टोस, कार्डलेण्ड, गोल्डन डेलिसियस, रायमर आदि।
  • सेब उत्पादन के लिए प्राकृतिक रूप से उपलब्ध भौगोलिक स्थिति का होना।
  • बाजारीकरण की उचित व्यवस्थायें।
  • यातायात की सुगमता जैसे सड़क तथा रेल मार्ग।

उत्तराखण्ड में सेब उत्पादन की मुख्य कमजोरियाँ-

  • भू-स्वामित्व का दिन प्रतिदिन कम होना तथा भू उपयोग में बदलाव।
  • अवैज्ञानिक ज्ञान के कारण उन्नत किस्मों का विघटन।
  • सेब बागीचों में विभिन्न रोगो, बिमारियों, कीटों व फफूद जनक रोगों का अत्यधिक प्रभाव जैसे वूली एफिड, सेन जोस स्केल, रूट बोरर, स्टेन बोरर, एप्पल थ्रिप्स, माईट्स, फाइटोपथेरा, ब्लाइट, कैंकर, पाउडरी मिल्ड्यू, रूट रॉट, कालर रॉट आदि हैं।
  • सेब की खेती के प्रति किसानों की उदासीनता।
  • पिछले कुछ दशकों में उत्तराखण्ड राज्य में सेब उत्पादन व विकास हेतु किये जाने वाले प्रयासों में कमी।
  • बागवानों, सरकारी विभागों, शोध संस्थानों एवं अन्य स्टेक होल्डरों के मध्य समन्वय की कमी।
  • उत्तराखण्ड में गुणवत्तायुक्त सेब पौध एवं रोपण सामग्री का अभाव।

उत्तराखण्ड राज्य में सेब उत्पादन के अवसर एवं संभावनाऐं-

  • उपयुक्त भौगोलिक परिस्थियां एवं जलवायु के अनुसार उच्च तकनीक को अपनाते हुये उपलब्ध जीन बैंक का विस्तार किया जा सकता है।
  • उत्तराखण्ड राज्य में सेब की स्पर अर्थात कम ठंड में पैदा होने वाली तथा जल्दी फलने वाली प्रजातियों के सेब उत्पादन की अपार संभावनायें हैं।
  • हाई डेन्सिटी अर्थात सधन तकनीकी को अपनाया जा सकता है।
  • जलवायु के अनुकूल प्रजातियों जैसे टॉपरेड, रैडचीफ, रैंड फ्यूसी, गोल्डन डेलिसियस, रॉयल डेलिसियस, रैंड डेलिसियस, गेलगाला, रैड विलैक्स, जेरोमाइन आदि किस्मों का उत्पादन उत्तराखण्ड में किया जा सकता है।
  • उत्तराखण्ड के युवाओं की समृद्ध सोच का बागवानी की ओर बढ़ना जो कि सेब उत्पादन के लिए एक अच्छा संकेत है।
  • वैज्ञानिक तकनीकी के अनुसार पुराने बागीचों का जीर्णोंधार किया जा सकता है।
  • स्थानीय बाजार एवं मण्डीयों को सेब उत्पादों को बेचने के अनुकूल तकनीकी उपलब्ध कराना। जैसे कोल्ड चेन सिस्टम आदि।
  • उचित बाजार व्यवस्था तथा मूल्य निर्धारण कर किसानों, व्यापारियों तथा ग्राहकों के हितों के निर्धारण पर विशेष कार्य किया जा सकता है।
  • सेब उत्पादों के मूल्य वर्धन हेतु इकाईयों की स्थापना करना। 

उत्तराखण्ड में सेब उत्पादन कार्य में आने वाले जोखिम- 

  • मौसमी बदलाव जैसे प्रकृतिक आपदायें, बेमौसम बारिस, आँधी तूफान, ओलावृष्टि आदि।
  • तेजी से बदलता भू-उपयोग एवं कृषि योग्य भूमि को तेजी से बाहरी लोगों को बेचा जाना तथा इन स्थानों पर रिहायसी कॉलौनियों का निर्माण।
  • सेब के बागों में बिमारियों तथा कीटों का बढ़ता प्रकोप।
  • जंगली जानवरों का आवादी क्षेत्र में बढ़ता दखल जो कृषि एवं बागवानी को बरबाद करने के लिए जिम्मेदार हैं। इसके कारण किसान सबसे अधिक हतोत्साहित होता है।

सेब उत्पादन क्षेत्र के विकास के लिए एक सामुदायकि सोच का विकास होना अनिवार्य है-

किसी भी विषय पर SWOT विशलेषण के बाद समझा जाता है कि इसके आधार पर एक सामाजिक सोच का विकास होना अति आवश्यक है। यही नियम सेव की बागवानी पर भी लागू होता है। जिसमें पुराने बागीचों का जीर्णोंधार तथा नये बागीचों को वैज्ञानिक आधार पर विकसित तकनीक से स्थापित करना आवश्यक है। यदि सारे बिन्दुओं को समेकित किया जाय तो निम्न प्रकार एक सामुदायिक सोच का निर्माण किया जा सकता है-

  • वृहद स्तर पर गुणवत्ता युक्त सेव के पौधों की उपलब्धता तथा विकेन्द्रित रूप में स्थानीय स्तर पर पौधशालाओं का निर्माण किया जाय।
  • उन्नत एवं गुणवत्ता युक्त प्रजातियों को बढ़ावा दिया जाय।
  • स्थान विशेष के आधार पर रोपित की जाने वाली उन्नत प्रजातियों का चयन किया जाय।
  • पुरानी प्रजातियों के संरक्षण पर कार्य किया जाय तथा इनके लिए जींन बैंक का निर्माण किया जाय।
  • बागवानों तथा किसानों के लिए क्षमता विकास एवं प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन।
  • समय एवं विभिन्न सीजन आधारित कार्यक्रमों का आयोजन।
  • सेब की पौधशाला विकास, व्याधि प्रबंधन, पोषण प्रबंधन एवं बाजार विकास पर विशेष ध्यान दिया जाय।
  • सेब की जैविक खेती को बढ़ावा दिया जाय।
  • स्थानीय स्तर पर सेव से मूल्यवृद्धि उत्पादों को बनाने के लिए किसानों तथा युवाओं को तकनीकी तथा विशेष रूप से प्रशिक्षित करना।
  • पर्वतीय क्षेत्र में फल आधारित उद्योगों की स्थापना हेतु स्थानीय युवाओं तथा उद्यमियों को प्रोत्साहित करना।
  • सेब से बने उत्पादों के बाजारीकरण की ओर सकारात्मक प्रयास करना।
  • सहकारिता आधारित खेती को बढ़ावा देना।
  • उन्नत रूट स्टाकों को बढ़ावा देना।
  • स्थानीय स्तर पर सघन एवं मजबूत मौसम पूर्वानुमान तकनीकी की स्थापना।
  • कृषि में उन्नत तकनीकी के उपयोग को बढ़ावा देना।

यदि उक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुये उत्तराखण्ड तथा अन्य पर्वतीय राज्यों में सेब की खेती को बढ़ावा दिया जायेगा तो निश्चित रूप से भारत आगामी समय में दुनियां का अग्रणि सेब उत्पादक देश बन सकता है। इससे स्थानीय स्तर पर रोजगार की संभावनायें भी सुद्रण हो सकती हैं, खास कर उन पर्वतीय राज्यों में जहाँ पलायन एक बड़ी समस्या है।

डॉ. नारायण सिंह जी वर्तमान में टेरी सूपी (The Energy and Resources Institute) में बागवानी विशेषज्ञ हैं, तथा विगत काफी वर्षों से मुक्तेश्वर क्षेत्र में उन्नत बागवानी एवं जीरों लागत कृषि तकनीकी पर अनुसंधान कर रहे हैं।

आलेख:

डॉ. नारायण सिंह

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