औद्योगिक भांग की खेती

भांग का नाम लेते ही हर किसी के कान खड़े हो जाते हैं, कुछ लोगों को भगवान शंकर का स्मरण हो आता है। इस आलेख में हम श्री जे.पी. मैठाणी जी के भांग पर किये गये शोध के माध्यम से औद्योगिक भांग की खेती पर जानकारी दे रहे हैं। जिसे पढ़ने के बाद भांग को लेकर आपका भी सोच बदल जायेगा।

इंडस्ट्रियल भांग की खेती के प्रोत्साहन को लेकर उत्तराखण्ड वासियों के साथ ही हर किसी के मन में सीधे नशे वाली भांग का खयाल आता है। जानकारी के अभाव में अधिकतर सामान्य जन से लेकर बुद्धिजीवी भी भांग की खेती को बुरा मानते हैं और पहाड़ में तो पुरानी कहावत भी है- ‘‘भांगलु जामलु तेरी कूड़ी।‘‘ लेकिन ये मान्यतायें और कहावतें अब झूठी और बेकार साबित होने जा रही हैं।

भांग की ओद्योगिक खेती
हेंडलूम में भांग के रेशे से बनते कपड़े

उत्तराखण्ड में नशामुक्त भांग की खेती जिससे प्राकृतिक रेशा, बीजों से ओमेगा-3 तेल, डंठलों से भवन एवं कार निर्माण, साथ ही पत्तियों और पुष्पक्रम से दवाइयां, असाध्य रोगों का इलाज और सौन्दर्य प्रसाधन विकसित कर स्वरोजगार के लिए नये रास्ते विकल्प के रूप में खोजे जा रहे हैं। लेखक द्वारा किये गये वर्ष 2004 से 2007 तक के अध्ययनों से निष्कर्ष निकला है कि उत्तराखण्ड के खाली होते पहाड़ों, बंजर होती कृषि भूमि और वन्य जीव-जन्तुओं तथा मानव संघर्ष के बीच बिना नशे वाली संकर या हाइब्रिड और उन्नत औद्योगिक भांग की खेती जिसमें टी.एच.सी. का प्रतिशत 0.3 से भी कम हो में बोकर स्थानीय बेरोजगारों के लिए बेहतर रोजगार दिलाया जा सकता है।

खेती या सार के चारों ओर तथा जंगल की तरफ वाली कृषि भूमि के किनारे-किनारे भांग, कपूर कचरी और टिमरू की खेती की जाए तथा भीतर की ओर – गेहूँ, उखीड़ वाला धान (पहाड़ों में जो धान बिना रोपाई के बीज छिड़क कर उगाया जाता है।) कोदा, झंगोरा, कौणी, चीणा, तिल, ओगल, फाफर, राजमा और अन्य दालें, कंद वाली सब्जियों जैसे- आलू, हल्दी, अरबी, पिंडालू, अदरक, आदि सफलतापूर्वक उगायी जा सकती हैं। राजमा और छेमी क्योंकि बेल वाली फसलें हैं। इनको ऊपर चढ़ाने के लिए भांग की सीधी लम्बी पौध सहारे का काम करेगी, दालों की जड़ों से नाइट्रोजन भांग के लिए उपयोगी होगी और बदले में भांग की पौध छेमी और राजमा के साथ-साथ पहाड़ों में उगने वाली अन्य दालों जैसे सोंटा, लोबिया को भी सहारा देगी।

इससे जंगलों से प्रतिवर्ष काटी जाने वाली हजारों टहनियों और रिंगाल की डंडियों की बचत होगी। अभी तक उत्तराखण्ड के राजमा वाले क्षेत्रों में लकड़ी या रिंगाल के ठांकरे सहारे के लिए लगाये जाते हैं। इस लेख का आशय किसी भी रूप में इंडस्ट्रियल भांग की खेती को नकारात्मक और बुरे उपयोग के लिए प्रोत्साहित करने का नहीं है। इस संदर्भ में पुरातन इतिहास और दस्तावेज़ों में उत्तराखण्ड के स्थानीय संसाधनों का वर्णन करते हुए पुरातन ऐतिहासिक दस्तावेज़ भी यहाँ के प्राकृतिक संसाधनों जैसे परम्परागत फसलें, प्राकृतिक रेशे डांस कण्डाली, भांग और अन्य रेशों के बारे में उद्घृत है। इन्हीं में से एक गढ़वाल हिमालय के गजेटियर में वर्णन किया गया है।

सरकारी और गैरसरकारी संगठनों को जो पूर्व से ही प्राकृतिक रेशा आधारित कार्य कर रहे हैं और उनसे बने उत्पादों का विपणन कर रहे है उनको उत्तराखण्ड बांस एवं रेशा विकास परिषद तथा उत्तराखण्ड हैन्डलूम एंव हस्तशिल्प विकास परिषद पूर्ण सहयोग करेगी। गौरतलब है कि पर्वतीय क्षेत्रों में 1910 से पूर्व अंग्रेजों के जमाने से अल्मोड़ा और गढ़वाल जिलों (वर्तमान का पौड़ी, चमोली, रूद्रप्रयाग, बागेश्वर, पिथौरागढ़) में रेशे और मसाले के लिए भांग की व्यावसायिक खेती की अनुमति का प्रावधान कानून में है।

पुरातन समय में जब जूते, चप्पलों का प्रचलन नहीं था, तब भेड़-बकरी पालक और तिब्बत के साथ व्यापार करने वाले लोग- भेड़-बकरी की खाल से बने जूतों के बाहर भांग की रस्सी से बुने गये छपेल का प्रयोग करते थे। ऐसे जूते पांव को गर्म तो रखते ही थे साथ ही बर्फ में फिसलने से रोकते थे। भेड़-बकरियों की पीठ पर माल ढोने के लिए भांग के रेशों से बनाये गये थैले भी पुराने समय में प्रचलन में थे।

उत्तराखण्ड के स्थानीय संसाधनों का वर्णन करते हुए पुरातन ऐतिहासिक दस्तावेज़ भी यहाँ के प्राकृतिक संसाधनों जैसे परम्परागत फसलें, प्राकृतिक रेशे डांस कण्डाली, भांग और अन्य रेशों के बारे में उद्घृत करते हैं। इन्हीं में से एक गढ़वाल हिमालय के गजेटियर में वर्णन किया गया है-

1910 में छपे ब्रिटिश गढ़वाल गजेटियर में लेखक एच.जी.वाल्टन लिखते हैं-
“चादपुर में निचले वर्ग के खसिया-पबिला अब भांग उगाते हैं। वे भांग गाँव से लगे उपजाऊ खेतों में उगाते हैं। पहले वे जंगलों को काटकर उसमें भांग बोते थे। लेकिन इससे चूंकि जंगल को नुकसान होता था इसलिए इस परम्परा को हतोत्साहित किया गया। भांग के हरे तने काटकर उन्हें धूप में सुखाया जाता है। इसके बाद उनके बंडल बनाकर पंद्रह-सोलह दिन के लिए पानी में डुबो दिया जाता है। तदोपरांत उन्हें लकडी के मुदगर से पीट कर फिर धूप में सुखाया जाता है। इसके पश्चात् इसके रेशे (लम्फा) निकाले जाते हैं। ये रेशे इसके मोटे वाले कोने से उधेड़ने शुरु किये जाते हैं। और फिर कूट कर इसकी गर्द निकालकर इसके पुलिंदे बनाये जाते हैं। ताकि इसे बेचा जा सके या इससे वस्तुएं बनायी जा सके। इससे कपड़ा बनाया जाता है जिसे भंगेला कहते हैं। इसे चांदपुर के लोग आमतौर पर पहनते हैं या थैले बनाते हैं। इसका कोटद्वार और रामनगर के रास्ते थोडा बहुत निर्यात होता है।”

यही नहीं गढ़वाल हिमालय के गजेटियर में यह भी जिक्र किया गया है कि भोटिया लोग ऊन के साथ-साथ भांग के बने कपड़े भी पहनते हैं। आंतरिक व्यापार में स्थानीय तौर पर कम्बल और भांग के रेशे का व्यापार किये जाने का जिक्र भी है। घी के व्यापार के साथ-साथ प्राकृतिक रेशे का व्यापार परम्परागत रूप से उत्तराखण्ड के पहाड़ी जनपदों में डेढ़ सौ वर्ष से भी पूर्व का बताया गया है।

यही नहीं महान इतिहासकार, हिमालय प्रेमी आयरलैण्ड में जन्मे शोधकर्ता एडविन थॉमस एटकिन्सन ने 1881 में द हिमालयन गजेटियर के भाग एक में उत्तराखण्ड में भांग की खेती आधारित स्वरोजगार जो उत्तराखण्ड में पहले से ही प्रचलन में थी के बारे में लिखा है कि “भांग की प्रजाति कैनाबिस इन्डिका में नर और मादा पौधे अलग-अलग होते हैं। नर पौधे को फूल भांग और मादा पौधे को गुर भांग कहते हैं।”

वे लिखते हैं कि “एक वर्ष में 3 से 14 फीट लम्बाई तक बढ़ जाने वाले भांग के लम्बे-लम्बे गोल डन्ठलां की ऊपरी त्वचा से ही भांग के रेशे का उत्पादन होता है। ये बारिक रेशे क्यूटिकल नामक त्वचा से ढ़के रहते हैं। भांग का रेशा अधिकतर नर पौधे से प्राप्त होता है यानि मादा पौधे से रेशा कम निकलता है। जबकि बीज और नशीला पदार्थ मादा पौधे से निकलता है। बीज का उपयोग तेल निकालने और मसाले के रूप में किया जाता है। नर पौधे से निकलने वाले रेशे को भंगेला कहते हैं।”

भांग के रेशे का उपयोग कोथला, बोरा, गाजी और पुलों के लिए रस्सी बनाने में उपयोग किया जाता है। कहीं-कहीं इन्हें गनरा-भांग, बण भांग, जंगली भांग भी कहते हैं। यह हिमालय के उत्तर-पूर्व जनपदों में उगायी जाती है।

एटकिन्सन लिखते हैं कि, इस प्रोविन्स में भांग की खेती की संभावनाओं के बारे में 1800 से पूर्व डॉ. रॉक्सबर्ग ने लिखा है कि इस क्षेत्र में भांग की खेती को बढ़ावा देने के लिए यूरोप से भांग की खेती के विशेषज्ञ मुरादाबाद और गोरखपुर जिलों में लाये गये थे। और कई वर्षों तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी अपने वार्षिक निवेश का बड़ा हिस्सा कुमाऊं की पहाड़ियों में उगाये गये भांग के एवज में प्राप्त करती थी। लेकिन कालान्तर में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के उन्मूलन और बहिष्कार के साथ भांग के रेशा आधारित कपड़ों की मांग सिर्फ स्थानीय स्तर पर ही रह गयी थी।

यही नहीं हिमालयी क्षेत्र में भांग की खेती के संदर्भ में हडल स्टोन और बेटन्स ने भी महत्व्पूर्ण बातें लिखी हैं। गढ़वाल में बड़े पैमाने पर भांग की खेती पूर्व में 4000 से 7000 फीट की ऊँचाई वाले क्षेत्र- बधाण, लोहबा, चाँदकोट, चाँदपुर, धनपुर, और देवलगढ़ परगने में किये जाने का जिक्र है। ये क्षेत्र अपनी विस्तृत वन सीमाओं, घने जंगल और समान तापमान की वजह से भांग की खेती के लिए उस दौर में अनुकूल थे जबकि उत्तरी दिशा के परगने जो हिमालय की बर्फीली चोटियों से मिलते थे वहाँ भांग की खेती बहुत कम थी। अतः यह कहा जा सकता है कि गढ़वाल में भांग के उत्पादन का सर्वथा अनुकूल क्षेत्र उत्तर में पिण्डर, दक्षिण में नयार, पूर्व में पश्चिमी रामगंगा और पश्चिम में गंगा नदी के बीच स्थित था।

उस दौर में प्रति बिस्सी/ बिसवा जमीन (1 बिस्सी बराबर 45 वर्ग गज) में 20 से 25 पाथा या 52 से 66 पाउंड भांग के बीज बोये जाने का जिक्र किया गया है। उस दौर में भी भांग की खेती के लिए जमीन को साफ करके मई-जून में बीज बोये जाने का जिक्र है। हिमालयन गजेटियर में भांग की खेती किये जाने का दस्तावेज़ीकरण 210 साल से भी पुराना है। दस्तावेज़ों में भांग की खेती करने के तरीके, कटाई, रेशा निकालना और मोटा कपड़ा बनाने की प्रक्रिया को विस्तारपूर्वक बताया गया है। यह कहा गया है कि गरीब लोग गर्मियों में भी भांग के भंगेला वस्त्र पहनते थे।

कुमाऊं में चौगरखा विशेषकर लखनपुर, दारूण, रांगौर और सालम पट्टी में भांग की खेती की जाती रही है। गंगोलीहाट के बरौं अस्सी चालिसी, ऊच्यूर, गुमदेश, ध्यानीराव और मल्ला चौंकोट में भांग की वृहद् खेती किये जाने वर्णन है।

एटकिन्सन लिखते हैं कि गढ़वाल में भांग की खेती करने वालों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था और- ‘तेरे घर-खेत में भांग जम जाये‘ ऐसा कहना अपशब्द माना जाता था। लेकिन दूसरी तरफ खसिया जाति के लोग बिना जाति मोह की चिन्ता किये सतत् रूप से भांग उगाकर उनके रेशों से घरेलू उपयोग के लिए रस्सियां बनाते हैं। यही नहीं वे भांग के रेशे से बने थैलों का उपयोग करते थे। जो कि उस दौर के अनुसूचित जाति के कोली, बोरा और आगरी लोग ही बुना करते थे। जबकि दूसरी तरफ सभी जनजाति समाज के लोग बिना सामाजिक चिन्ता किये हुए भांग का सभी तरह से व्यापार कर रहे थे।

एटकिन्सन लिखते हैं कि डॉ रदरफोर्ड ने भांग के रेशे के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी से करार किया था और इस वक्त ही उत्तराखण्ड में भांग रेशा आधारित उद्यमिता की शुरूआत हुई जो कि गांव के मुखिया के माध्यम से की जाती थी। 1814 में 4 रूपये में एक मौंड (320 पौंड) रेशे की कीमत किसान के घर पर 4 रूपये और कोटद्वार या चिल्किया में 5 रूपये प्रति मौंड बतायी गयी। यानि लगभग 128 किग्रा0 रेशे की कीमत सन् 1814 के आसपास मण्डियों में 5 रूपये और किसान के घर पर 4 रूपये थी। सन् 1840 में कुमाऊं क्षेत्र से हजार रूपये से थोड़ा अधिक धनराशि का भांग रेशा और भांग से बने उत्पादों का व्यापार हुआ था।

कैप्टन हडल्सटन ने अनुमान लगाया था कि गढ़वाल क्षेत्र में उसी दौरान 250 एकड़ से 40 टन रेशा पैदा हुआ होगा। इस दौर में भांग के बीजों को सौर एवं सीरा परगना में खाने के लिए प्रयोग किया जाता था। सन् 1840 में भांग का बीज 3 रुपया प्रति मौन्ड (320 पौण्ड) था जो बाद में 4 रुपया हो गया था इस दौर में भी लोग बिना बुने हुए भांग के रेशे अपने उपयोग के अनुसार खरीदते थे।

भंगेला या भांग का कपड़ा सीट के रुप में और या तो कोटला (मोटा कपडा) और थैले के लिए उपयोग होता था जबकि बारिक काते गये भांग के धागे से आटा और चूना लाने लेजाने के लिए थैलियां बनायी जाती थी सन् 1840 में भांग के कपड़े का बैग 6 आना और सन् 1881 में 12 आने में बेचा जाता था छोटे साइज के बैग सन् 1840 में 2 रुपये दर्जन होते थे। भांग के कपडे़ से बने थैलों की मांग व्यापारियों द्वारा लगातार बढ़ती जा रही थी मांग का फायदा उठाते हुए भांग के कपड़े बने थैले महंगे होते जा रहे थे। क्यांकि कोटद्वार और रामनगर के तराई में आलू बेचने के लिए इन थैलों का प्रयोग किया जा रहा था।

मिस्टर जे.एच. बैटन ने अपनी रिपोर्ट- कुमाऊं में भांग की खेती की संभावनायें शीर्षक में लिखा है कि कुमाऊं के चौगरखा परगना में और सम्पूर्ण कुमांऊ में जो भी परिवार भांग की खेती कर रहे हैं उन्हीं से भांग का रेशा खरीदा जाये बजाय कि यूरोपीय राजधानी के नुमांइदें यहाँ आकर जमीन खरीदें और फिर भांग की खेती को उद्यमिता विकास के लिए प्रोत्साहित करें। यहाँ यह समझना बहुत आवश्यक होगा कि- ‘मैं समझता हूँ जब भांग के रेशा आधारित उद्योग से कोई भी परिवार रोजगार पा रहा हो और उसका जीवनस्तर बेहतर दिखाई देने लगे तो उत्तराखण्ड के समाज में अन्य लोग स्वयं इसका अनुसरण करेंगे। जिससे सम्पूर्ण कुमाऊं और गढ़वाल की वो सारी जमीन धीरे-धीरे भांग की खेती के लिए उपयोग की जा सकेगी। जो अभी तक बेनाप और बेकार पड़ी हुई है।

नेपाल में भांग की खेती-

इसी दौर में नेपाल के उत्तरी परगना में भी भांग की खेती की जाती थी। मिस्टर बी.एच. हॉगसन ने लिखा है कि नेपाल में मार्च अप्रैल में भांग के बीज बोये जाते हैं। खेत को समतल कर पर्याप्त मात्रा में गोबर डाला जाता है। बाद में भांग के बीजों को छिड़ककर बोया जाता है जो कि बोने के 7-8 दिन बाद जमने लगते हैं। वो लिखते हैं कि भांग के पौधों पर सावन यानि जुलाई और भादो यानि अगस्त की शुरूआत में फूल और बीज बनने लगते हैं।

इसी दौरान जिन पौधों पर बीज ना बने हों उन्हें काटकर उनकी छाल से कोमल रेशा निकलता है। और इस रेशे से कोमल कपड़े या भंगीला (भांग से बने कपड़े) बनाये जाते हैं। जबकि जिन पौधों को फूल और बीज बन जाने के बाद अक्टूबर में काटा जाता है। उनके डंठलों को 8 से 10 दिनों तक तेज धूप में सुखाया जाता है फिर उन गट्ठरों को तीन दिन तक बहते पानी में डुबोकर रखा जाता है और चौथे दिन उनकी छाल निकालकर, धोकर अच्छे ढंग से सुखाया जाता है इस तरह से अब प्रत्येक छाल बारीक-बारीक छिलकर उसके रेशे हाथ के नाखूनों से अलग करते हुए तकली (टिकुली) से घुमाते हुए धागा तैयार कर लिया जाता है।

इस तैयार किये गये धागे को लकड़ी की राख और पानी के घोल में 4 घंटे तक उबाला जाता है। तदोपरान्त पुनः अधिक सफेदी लिए धागा तैयार होता है। नेपाल में उस दौर में भांग के कपड़े और थैले बनाने का यह तरीका मौजूद था। वे आगे लिखते हैं कि एक माणा यानि कच्चा सेर का आधा बीज एक रोपणी (भूमि माप का पैमाना जो कि 605 वर्ग गज के बराबर होता है) भूमि से 10 या 12 लोड भांग पैदा होता है। वे लिखते हैं कि यूरोप के बाजारों के लिए उस दौर में तैयार किये जाने वाले भांग रेशे के वे समस्त गुण जैसे मज़बूती, महीन, कोमल और जोड़ों पर ना दिखने वाला प्राकृतिक रेशा उत्तराखण्ड और नेपाल के भांग रेशों में पीट्सवर्ग में उगाये जाने वाले भांग के उन्नत गुणों के समान मौजूद था।

ऊपर वर्णित ऐतिहासिक दस्तावेज़ों को उद्घृत करना इसलिए भी आवश्यक हो जाता है क्योंकि 15 साल पूर्व बने हिमालयी राज्य में स्थानीय संसाधन आधारित स्वरोजगार जो प्रदूषण ना करते हों विकसित किये जाने की आवश्यकता है पर्यटन (इकोटूरिज़्म), प्राकृतिक रेशा और हस्तशिल्प ये तीन प्रमुख रोजगार के उद्योग हैं जो धुंआरहित हैं।
यहाँ यह भी स्पष्ट करना आवश्यक होगा कि इस लेख का प्रमुख उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ भांग के रेशा, दवा, कॉस्मेटिक, कागज़, इन्सुलेशन, ऊर्जा के उपयोग वाले क्षेत्रों को प्रोत्साहित करना है।

बॉम्बे हैम्प कम्पनी के अध्ययन के अनुसार –

आबकारी अधिनियम की धारा 8/9/10 में भांग में पाये जाने वाले नशीले नारकोटिक की वजह से प्रतिबन्धित और खेती करने का भी प्रावधान है। वहीं दूसरी ओर धारा 14 में आबकारी अधिकारियों के निरीक्षण और मार्गदर्शन में भांग की खेती किये जाने का प्रावधान है। लेकिन अगर व्यावसायिक भांग में टी एच सी स्तर 0.3 से 1.5 के बीच है तो ऐसी भांग नशे की श्रेणी में नहीं आती है लेकिन जहाँ टीएचसी का स्तर 1.5 से अधिक हो जाए उसे नशीला माना जा सकता है और ऐसे भांग की खेती प्रतिबन्धीत हो जायेगी।

अब इस दिशा में राज्य सरकार के आग्रह पर पन्त नगर कृषि विश्वविद्यालय, भरसार कृषि विश्वविद्यालय, विवेकानन्द पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान भांग की उन्नत किस्म जो रेशे और बीजों के लिए उपयोगी हो और जिसमें टी.एच.सी. का स्तर 0.3 से कम होगा ऐसे बीजों को पहाड़ों की बेकार पड़ी भूमि पर कृषिकरण के लिए प्रचारित प्रसारित किया जायेगा।

वन पंचायतों पर कार्य कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता श्री ईश्वर जोशी बताते हैं कि 1992-93 में भी स्थानीय लोगों द्वारा परम्परागत रूप से भांग की खेती को नारकोटिक एक्ट से मुक्ति दिलाने के लिए एक समिति बनायी गयी थी लेकिन उस वक्त भी उस पर कोई खास कार्य नहीं हो पाया। उनका कहना है कि भांग की खेती नशे के लिए करना सर्वथा अनुचित है लेकिन अगर भांग के रेशे और बीज का उपयोग स्थानीय स्वरोजगार को बढाने के लिए किया जाये तो अनुचित नहीं है।

कुमाऊं में पुरातन काल से ही भांग के बीजों का उपयोग गडेरी, गोभी की सब्जी में मसाले के रूप में सर्वाधिक किया जाता रहा है। ग्रामीणों क्षेत्रों के गरीब काश्तकार भांग के बीज, नमक और नींबू की चटनी बनाकर ही सब्जी का जुगाड़ कर लेते हैं। मट्ठे को स्वादिष्ट बनाने के लिए भांग के थोड़े से बीज, टिमरू के बीज पीस कर स्वादिष्ट पेय बनाया जाता रहा है।

उत्तराखण्ड बांस एवं रेशा विकास परिषद के वरिष्ठ कार्यक्रम समन्वयक श्री दिनेश जोशी ने जानकारी दी कि हिमालय में तिब्बत और भूटान्तिक व्यापार के दौरान से ही भांग के रेशे से बने छपेल (बर्फ पर चलने के लिए जूते), रस्सियां, छोटे थैले, बैलों के मुंह पर बांधे जाने वाले मोथड़े भांग से ही बनाये जाते रहे हैं। ऐसे में कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा बिना सोचे-समझे भांग की खेती के प्रोत्साहन का विरोध करना सर्वथा अनुचित है।

उन्होंने बताया कि उत्तराखण्ड बांस एवं रेशा विकास परिषद द्वारा राज्य बनने के बाद सबसे पहले 2004 में पीपलकोटी में आगाज़ फैडरेशन के साथ भांग रेशा आधारित प्रशिक्षण एवं प्रसंस्करण कार्यक्रम चलाये गये जिसकी सफलता को देखते हुए कालान्तर में सर रतन टाटा ट्रस्ट ने कार्य को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित किया। आज भी यह कार्य भांग रेशे के साथ-साथ कण्डाली एवं भीमल रेशा आधारित उद्योग को आगे बढ़ाने के लिए आगाज़ फैडरेशन पीपलकोटी द्वारा बिना किसी सहायता के चलाया जा रहा है। यहाँ भांग के रेशे के सदुपयोग पर ज्यादा ध्यान देने की आवश्यकता है ना कि उसके नशीले गुणों को उजागर कर डांडी मार्च करने की।

जनपद चमोली में ही डांस कण्डाली परियोजना पर आगाज़ फैडरेशन के साथ कार्य कर रहे श्री ने बताया कि भांग के रेशे की खेती को प्रोत्साहित करने से गाड़-गधेरों और बुग्यालों से नीचे छानी क्षेत्र में जहाँ भेड़-बकरियों को गोठ में रखा जाता है उस खाली जमीन पर जो भांग उगती है उसका नशे के लिए दुरूपयोग संभव है लेकिन अगर सही देख-रेख में कम टी.एच.सी. लेवल की भांग की खेती कर उससे फाइबर निकाला जाये तो सैकड़ों बेरोजगारों को रोजगार मिल सकता है।

भारतीय ग्रामोद्योग संस्था के श्री अनिल चंदोला ने जानकारी दी कि उनके कार्डिंग प्लान्ट में भांग-कण्डाली, ऊन आदि सभी रेशों की कार्डिंग की जाती है और भांग से बने धागे की देश-विदेश में बहुत मांग है।

बॉम्बे हैम्प कम्पनी से जुड़े युवा दिलज़ाद एवं सुमित ने जानकारी देते हुए बताया कि अकेले भारत में भांग के रेशे, भांग के बीजों का तेल, भांग के बीजों से बने साबुन और भांग का रेशा निकालने के बाद बचे बायोमास या डण्ठलों से – भवन निर्माण सामग्री, इंसुलेशन पैनल, मोटर कार के बम्पर बनाने के शोध कार्य आगाज़ फैडरेशन के साथ तीन साल से किये जा रहे हैं। इसलिए हमें इस बात की निराशा है कि उत्तराखण्ड के कुछ बुद्धिजीवी सिर्फ नशा और लाइसेंसिग की प्रक्रिया का हल्ला मचा कर इस विकास कार्य को प्रभावित करना चाहते हैं।

नारकोटिक्स एक्ट 1985 के सेक्शन 14 में वर्णित है कि सरकार विशेष प्रावधानों के तहत् सिर्फ और सिर्फ भांग के औद्योगिक उपयोग जैसे रेशा, बीज और उद्यानिक प्रयोग हेतु भांग की खेती कर सकते हैं। एन.डी.पी.एस. (नारकोटिक ड्रग एण्ड साइकोट्रॉपिक सब्सटेन्सेस) एक्ट 1985 पर राष्ट्रीय नीति के सेक्शन 14 में पुनः इसका उद्धरण है कि भांग के बीजों से उच्च मूल्यों के तेल बनाये जा सकते हैं।

कुछ देशों में भांग की कम टी.एच.सी. (टेट्रा हाइड्रा कैनाबिनोल) की प्रजाति उगाई जा सकती है। उत्तराखण्ड के संदर्भ में अल्मोड़ा, गढ़वाल और नैनीताल- तराई भाबर को छोड़कर एन.डी.पी.एस. एक्ट के सेक्शन 17 (1) (बी.) आबकारी एक्ट के तहत् भांग की कृषिकरण हेतु अनुमति प्रदान है यानि अल्मोड़ा, गढ़वाल और नैनीताल में भांग की खेती की जा सकती है। लेकिन भांग का किसी भी स्थिति में नशे के लिए कदापि उपयोग नहीं किया जा सकता।

दूसरी ओर पंत नगर कृषि विश्वविद्यालय द्वारा डॉ. सलिल के. तिवारी के निर्देशन में डॉ. अलका गोयल, डॉ. आशुतोष दुबे, डॉ. ए.के. वर्मा, डॉ. शिशिर टंडन और डॉ. सुमित चतुर्वेदी के नेतृत्व में 2011 से उत्तराखण्ड में लो टी.एच.सी. यानि कम टी.एच.सी. की भांग प्रजाति की कृषिकरण और रेशे के बेहतर उत्पादन के लिए प्रयास किये जा रहे हैं। इससे पहाड़ के ऊँचाई वाले इलाकों में चरस गांजा के लिए उगाई जाने वाली भांग की अवैध खेती को रोका जा सकेगा।

पूर्व में मुख्यमंत्री उत्तराखण्ड सरकार ने इस बात पर भी जोर दिया कि गाँव में प्राकृतिक संसाधन होने से पलायन रूकेगा और उनका प्रयास रहेगा कि देश-विदेश के सभी संस्थानों को इस कार्य में जोड़ कर उत्तराखण्ड में विकास के नये आयाम स्थापित किये जायें।

मुख्य सचिव उत्तराखण्ड सरकार श्री उत्पल कुमार की अध्यक्षता में दिनांक 25 फरवरी 2020 को सचिवालय में सेंटर फॉर ऐरोमैंटिक प्लांट के समन्वय से आयोजित बैंठक में औद्योगिक भांग की खेती के संबंध में चर्चा कर इस दिशा में महत्वपूर्ण निर्णय लिये गये। इस बैठक में औद्योगिक भांग की खेती के संबंध में कानूनी अड़चनों को दूर करने, प्रदेश में औद्योगिक भांग आधारित स्वरोजगार को बढ़ावा देने के लिए नारकोटिक्स एक्ट में सरकार के स्तर से संसोधन करने का निर्णय लिया गया।

बैंठक में यह भी तय किया गया कि कम टी.एस.सी. (0.3 से कम) के औद्योगिक भांग के बीजों को प्रदेश स्तर के शोध संस्थानों के सहयोग से विकसित किया जायेगा। बैठक में मिनाक्षी सुन्दरम सचिव कृषि, आपकारी सचिव, बाम्बे हैम्प कंपनी, आई.आई.एच.ए. (Indian Industrial Hemp Association) के प्रतिनिधियों द्वारा प्रतिभाग किया गया।

शोध आलेख एवं अध्ययन
जे.पी. मैठाणी

J.P.Maithani
J.P.Maithani

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