स्त्रियों के साथ अमानवीय व्यवहार कब तक?

अधिकार और कर्तव्य, ये वे शब्द हैं जिन्होंने मानव सभ्यता को हमेशा प्रभावित किया है। अधिकार शब्द का प्रयोग हम हक जमाने के लिए करते हैं। वहीं कर्तव्य करने की अपेक्षा हमेशा दूसरों से की जाती है। समय के साथ विकसित होते मानव मस्तिष्क ने इन शब्दों को परिभाषित करने का प्रयास किया। वैश्विक औपनिवेशवाद से उभरते दुनियां के विभिन्न देशों ने अपने संविधानों में अधिकार और कर्तव्य को परिभाषित किया। आजादी के बाद भारत के संविधान में भी अधिकारों और कर्तव्यों को शामिल किया गया।

हमारा संविधान जहां देश के प्रत्येक नागरिक को सम्मान पूर्वक जीवन जीने के लिए छः (6) मौलिक अधिकार प्रदान करता है। वहीं दूसरी ओर संविधान अपने नागरिकों से ग्यारह (11) मौलिक कर्तव्यों का पालन करने की अपेक्षा भी करता है। अगर आपको संविधान में वर्णित अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में जानकारी नहीं है तो आपको इसका अध्ययन करना चाहिए। ये समाज के वे मूल हैं जिनसे एक स्वस्थ समाज रूपी वृक्ष का पोषण होता है, वह फलता फूलता है, उत्तरोतर विकास करता है और आदर्श मानव सभ्यता के प्रतिमान स्थापित करता है।

वहीं दूसरी तरफ हमारे इसी समाज का एक और पहलू भी उजागर होता रहा है। स्त्रियों को एक वस्तु के रूप में देखना, उनमें अधिकार जताना, उनका शोषण करना, उनके साथ अमानवीय व्यवहार करने जैसे कृत्यों को अंजाम दिया जाता है। परिणामस्वरूप मणिपुर, पश्चिम बंगाल, निर्भया और विगत दिनों ऋषिकेश में घटित अंकिता हत्याकाण्ड जैसी इंसानियत को शर्मसार करने वाली घटनायें हमारे सामाजिक प्रदूषण के स्तर को उजागर करती हैं।

सोचने की बात यह है कि हमारा समाज इन वीभत्स घटनाओं को कुछ ही दिनों में भूल भी जाता है। देश में महिलाओं के साथ घटित होने वाली ऐसी घटनाओं का यह क्रम जारी है। यह अमानवीय कृत्य कब खत्म होंगे पता नहीं। लेकिन इतिहास गवाह है जब कभी भी स्त्रियों को चोट पहुंचाकर और उनके आत्म सम्मान को ठेस पहुंचाकर, जिस किसी ने भी अपना हित साधने का प्रयास किया उसका विनाश ही हुआ है। फिर चाहे महाभारत में कौरव हों या रामायण में रावण।

मणिपुर में दो महिलाओं के साथ घटित अमानवीय घटना का वीडियो वायरल होने के बाद जिस प्रकार उच्चतम न्यायालय ने केन्द्र और राज्य सरकार को चेतावनी जारी कर कार्यवाही करने के निर्देश दिए हैं। उससे यह प्रतीत होता है कि अभी भी भारत में न्याय व्यवस्था जिंदा है। आने वाले दिनों में पता चलेगा कि केन्द्र और राज्य सरकारों ने उच्चतम न्यायालय के निर्देशों का कितना पालन किया और क्या कार्यवाही की।

लेकिन दूसरी ओर यह प्रश्न अभी भी जिंदा है कि ऐसी कितनी ही घटनायें देश के अलग अलग कोनों में घट रही होंगी जिनका पता ही नहीं चलता। कहीं कोई गरीब मासूम अपने साथ हुये बलात्कार को लोक लज्जा के कारण कह नहीं पाती होगी, तो कहीं अपने ऊपर हुये अत्याचार के लिए आवाज उठाने वाली किसी बेटी का गला ही काट दिया गया हो।

आज हमारे देश में महिला पुरूष समानता की बात कही जाती है। ग्राम पंचायत से लेकर लोक सभा तक महिलाओं को प्रतिनिधित्व प्राप्त है। महिलाओं की सुरक्षा को लेकर कई कानून बनाए गये हैं। लेकिन जब उसी देश में महिलाओं पर हो रही अमानवीय घटनायें सामने आती हैं तो यह सब बातें एक छलावा और दिखावा लगती हैं।

समाज में घटित होने वाली हर घटना की जिम्मेदारी को जब तक समाज स्वयं नहीं लेगा तब तक समाज में स्त्री सम्मान की कल्पना को साकार नहीं किया जा सकता। हमें स्वयं को चेतना के स्तर पर इतना मजबूत करना होगा कि बाहरी प्रभावों, दबावों, अफवाहों और उत्तेजनाओं से स्वयं को बचा सकें। अधिकारों के साथ ही हम अपने कर्तव्यों की भी बात करें। समाज में महिलाओं के प्रति सम्मान जनक दृष्टिकोंण को स्थापित करने की शुरूवात खुद से करें।

सरकारों को चाहिए कि वह प्रशासनिक तंत्र को मजबूत करें और समाज में कानून व्यवस्था को स्थापित करे। सामाजिक असुरक्षा पर राजनीति करने के बजाय सामाजिक सुरक्षा को स्थापित करे। कानूनों का कढ़ाई से पालन किया जाये। न्याय प्रक्रिया को तेज और मजबूत करने की ओर प्रयास किये जायें और नागरिकों के लिए मौलिक कर्तव्यों का पालन करना अनिवार्य किया जाये।

पंकज सिंह बिष्ट, सम्पादक “बात पहाड़ की”

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