एक ओर बाजार में जहां सब्जियों और फलों के दाम आसमान छू रहे हैं, वहीं दूसरी ओर किसान मण्डी में अपने द्वारा उत्पादित फल और सब्जियों के दाम न मिलने के कारण रो रहा है। हाय रे सरकार यह कैसा न्याय? यह हाल उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्र नैनीताल के रामगढ़, धारी और ओखलकांडा विकासखण्ड के किसानों का है।
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एक समय था जब पहाड़ी किसानों द्वारा पैदा किए गये सेब, आलू और अन्य फल-सब्जियों की मांग बाजार में खूब थी। मांग आज भी है। अगर अभी भी आप बाजार में फल-सब्जी खरीदने चले जाईये दुकान वाला आपको पहाड़ी के नाम से ही फल-सब्जी बेच रहा होता है। वर्तमान में यह सारा माल पहाड़ से ही आ भी रहा है।
लेकिन ऐसा क्यों हो रहा है कि बाजार में मांग होने के बाद भी किसानों को दाम नहीं मिल रहे हैं? इसके पीछे मुनाफाखोरों की बड़ी साजिश और उत्तराखण्ड में फल और सब्जी विपणन की एक ठोस नीति का न होना है। जिसका नुकसान पहाड़ी किसानों को भुकगना पड़ता है।
किसान अपने उत्पाद को बेचने जब मण्डी में जाता है तो उसके माल की कीमत खरीददार अर्थात ग्राहक लगाता है। लेकिन जब वहीं किसान खुद एक ग्राहक के रूप में अपने लिए सब्जी या अन्य उत्पाद खरीदने बाजार में जाता है तो दाम बेचने वाला लगाता है, ऐसा क्यों?
किसी भी राज्य में बनने वाली नीति इस बात पर निर्भर करती है कि वहां के लोग क्या चाहते हैं। सरकार यह देखती है कि वह लोग जो अपने लिए किसी खास नीति की मांग कर रहे हैं वह कितने संगठित हैं और उनकी बात न मानने से सरकार को क्या और कितना प्रभाव पड़ सकता है। इस प्रकार उत्तराखण्ड में खास तौर पर पहाड़ी क्षेत्र के किसानों की संगठनात्मक स्थिति की बात करें तो किसी भी नजरिये से यह संगठित नहीं हैं। इसलिए सरकार को भी कोई चिंता नहीं, स्थानीय जन प्रतिनिधियों और नेताओं को किसी न किसी प्रकार से वोट मिल ही जाने हैं तो फिर किसानों के मुद्दों पर चर्चा कौन करे? किसमें इतनी ताकत है जो किसानों की समस्याओं पर सरकार के कान खींचे?
बाबू जी जरा रूकिए इसके पीछे एक और तगड़ा खेल है। अच्छा जरा विचार करिए कि भूख तो किसान को भी लगती होगी, उसका परिवार भी होता ही है, बच्चे भी होते हैं, तो अपना और बच्चों का पेट पालने, बच्चों की पढ़ाई, अस्पताल का खर्च, मेहमान, बच्चों के नामकरण से शादी तक के खर्च यह सब वह कहां से लाता होगा? क्या एक किसान सम्मान निधि के दो हजार से एक किसान का परिवार पल सकता है? या सस्ते गल्ले की दुकान से मिलने वाले कुछ किलोग्राम राशन से उसके परिवार का पेट पूरे महिने भर जाता होगा?
इन सारे प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए कभी पहाड़ आकर देखिए तब पता चलेगा कि पहाड़ी किसान की स्थिति क्या है और वह कैसे अपनी जिन्दगी जी रहा है। वह अपनी उन जमीनों को बेच रहा है जिसमें वह पीढ़ियों से खेती कर रहा था। आपको क्या लगता है, यह वह शौक से कर रहा है? जी नहीं, खेत मैं पैदा फसल का दाम नहीं मिलेगा तो वह और क्या करेगा? आपकी ही जैसी जरूरतें उसकी भी हैं उसे भी अपने बच्चों का पेट पालना है, अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करना है, बच्चे बड़े हो गये तो उनकी शादी करनी है। जिससे उसका परिवार चलता था उससे उसे आय नहीं मिलेगी तो मजबूरन वह अपनी जमीनें बेचता है।
अब आप कहेंगे की उसे जमीन बेचकर खूब पैसा मिलता होगा, नहीं प्रभु यही तो वह असली खेल है जिसके लिए एक किसान को मजबूर किया जाता है। इसके पीछे एक पूरा माफिया तंत्र काम कर रहा है जो इन किसानों की बिकने वाली जमीनों की दलाली से असली कमाई करता है। इन दलालों और जमीनों के माफियाओं में भारी संख्या में नेता, सरकारी अफसर, स्थानीय जन प्रतिनिधि शामिल हैं, जो किसानों की जमीनों को बिकवाकर अकूत दौलत कमाते हैं। इस सारे तंत्र का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता, क्योंकि इसे राजनीतिक सह मिली हुई है।
अब सवाल यह उठता है, तो क्या किया जाये? इस समस्या का एक ही समाधान है वह यह कि पहाड़ का किसान संगठित हो और उसके बाद सरकार पर किसानों के अनुकूल नीति निर्माण करने का दबाव डाला जाये। अगर उत्तराखण्ड सरकार हिमाचल प्रदेश की तरह भू- कानून उत्तराखण्ड में लागू कर दे, तो किसानों की बरबादी के कारण इस तंत्र की कमर केवल एक रात में तोड़ी जा सकती है। यह तभी सम्भव है जब पहाड़ का किसान और युवा संगठित हो जायें और अपने हित के लिए फिर से एक आंदोलन करें, जिससे पहाड़ और पहाड़ के किसान दोनों का वजूद बच सके।
पंकज सिंह बिष्ट, सम्पादक
विचारों से सहमत हूँ। पहाड़ के जिलों के लिए अलग रणनीति बननी चाहिये। One District one Product में नैनीताल में फ्रूटस पर होना चाहिए था लेकिन उसकी जगह Woolen Products and other handicraft है। जो किसानों के पास है उसके मार्केटिंग पर ध्यान देना चाहिए था। या पहाड़ के इन क्षेत्रों में बड़े स्तर की प्रोसेसिंग units बनाकर किसानों से उचित मूल्यों में कच्चा माल खरीदना चाहिये। व्यक्तिगत राय है।