सेब के बगीचों में रोग की पहचान, नियंत्रण, रोग प्रबंधन

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किसान भाईयों नमस्कार!

ठंडी जलवायु के फलों में सेब अपने खास स्वाद, सुगंध, रंग व अच्छी भण्डारण क्षमता के लिए जाना जाता है। सेब का उपयोग ताजे और प्रसंस्करित उत्पादों जैसे-जैम, जैंली, चटनी, जूस, मुरब्बा, सिरका, चंग्स इत्यादि के रूप में किया जाता है।

भारत के कई राज्यों जैसे हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, कश्मीर के किसानों की आय का प्रमुख स्रोत सेब की बागवानी ही है। सेब उत्पादन बहुत ही लाभदायक व्यवसाय है। किन्तु सेब की बागवानी में रोगों के प्रकोप एक बड़ी चुनौती भी है। जिससे किसाना भाईयों को कई बार नुकसान भी उठाना पड़ता है।

हम इस आलेख को सेब में पत्तों व फलों के रोग, मृदाजनित रोग और उनके प्रबंधन की जानकारी के साथ साझा कर रहे हैं। हमें लगता है कि यह जानकारी आपके लिए अवश्य ही उपयोगी और लाभदायक होगी।

सेब का पतझड़ व धब्बा रोग

सेब में लगने वाले रोगों में असमय पतझड़ का प्रकोप बगीचों में काफी देखने को मिल रहा है। प्राथमिक संक्रमण बसंत ऋतु में फफूंदजनित बीजाणुओं द्वारा होता है। इस रोग के लक्षण पत्तियों व फलों पर दिखाई देते हैं।

ऐसे क्षेत्र जो छायादार व अधिक नमी वाले होते हैं ऐसे स्थान के पौधे इस रोग के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं और वह जल्दी संक्रमित हो जाते हैं।

पतझड़ व धब्बा रोग के प्रबंधन व बचाव के उपाय

सेब में इस रोगों के प्रबंधन के लिए बगीचों से खरपतवार और झाड़ियों को हटाकर साफ करना अच्छी प्रथा होती है। इससे वातावरण में अधिक नमी नहीं पनपती है।

सर्दियों में पौधों की उचित काट-छांट करना भी अनिवार्य होता है। इससे धूप की किरणें अधिक से अधिक पौधों के भीतर तक जाती है और हवा का उचित प्रवाह होता रहना चाहिए।

सर्दियों में नीचे गिरी हुई पत्तियों को इकट्ठा करें और इसे एक गड्ढे में डालकर खाद बनाई जा सकती है। इसका एक फायदा यह है कि इससे फपूंफद की शीतपारण अवस्था को खत्म करने में मदद मिलती है।

असमय पतझड़ रोग से बचाव के लिए अपने राज्य के उद्यान विभाग के स्प्रे सुझावों के अनुसार समय-समय पर व सही मात्रा में फफूंदीनाशक दवा का छिड़काव करना लाभदायक होता है।

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सेब में चूर्णिल आसिता रोग

सेब में यह रोग पत्तियों, कलियों, हरी टहनियों और फलों में लगता है और उन्हें नुकसान पहुँचाता है। इसके लक्षणों के रूप में पत्तियों की निचली सतह में पीले रंग के धब्बे दिखने लगते हैं।

इस रोग को अनुकूल वातावरण मिलते ही रोग पत्तियों व डंडियों से बढ़ते हुए हरी टहनियों तक फैल जाता है। रोग से संक्रमित पत्तियां मुड़कर सख्त एवं भंगुर हो जाती हैं। नई अंकुरित टहनियों के आगे के भाग बौने रह जाते हैं।

इस रोग में संक्रमित कलियों के खिलते ही कवकजाल में वृद्धि होने लगती है और यह कवक टहनियों को संक्रमित करता है। रोगग्रस्त ज्यादातर टहनियां बसंत ऋतु में ही मर जाती हैं और अगर बच भी जाएं तो शीतकाल में यह सूख जाती है।

फफूंद की सुरूवाती वृद्धि में नई संक्रमित कलियां (घुण्टी) फल पैदा करने में सक्षम नहीं होती हैं और यदि ऐसी कलियों पर फल लग भी जायें तो उनका आकार छोटा रह जाता है। उन पर रस्सैटिंग के लक्षण दिखाई देते हैं और इस रोग के लक्षण अधिकतर परागण करने वाली सेब की किस्मों में देखे जा सकते हैं।

सेब में चूर्णिल आसिता रोग का प्रबंधन व बचाव के उपाय

सेब में चूर्णिल आसिता रोग का प्रबंधन व बचाव के उपायों के रूप में पौधों की काट-छांट करते समय रोगग्रस्त टहनियों तथा शाखाओं को काटकर नष्ट कर देना चाहिए।

हरी कलीयों, पंखुड़ीयों के झड़ने, फल स्थापन अवस्था व सुशुप्तावस्था के अंत में ज्यादा संक्रमित पौधों पर उद्यान विभाग द्वारा सुझाये गये फफूंदीनाशकों का छिड़काव रोग के लक्षण दिखते ही कर देना चाहिए। पहले छिड़काव के 14 से 15 दिनों के बाद फिर से छिड़काव करना चाहिए।

स्कैब रोग

सेब के स्कैब रोग में रोग प्रमुख रूप से पत्तियों, फलों व हरी टहनियों पर पाया जाता है। बागवानों को इस रोग के प्रति सचेत रहने की आवश्यकता होती है।

प्रबंधन

स्कैब रोग के नियंत्रण लिए पूर्वानुमान तकनीक द्वारा रोग नियंत्रण उपायों का अनुसरण करना चाहिए। पूर्वानुमान प्रणाली द्वारा नियंत्रण उपायों को सुनिश्चित किया जा सकता है।

अगर रोग के होने का पूर्वानुमान लगाया जाता है या रोग के लक्षण बगीचों में दिखें तो अपने राज्य के बागवानी विभाग व उद्यानिकी विश्वविद्यालयों द्वारा अनुमोदित फफूदीनाशकों का प्रयोग करना चाहिए।

बगीचों में गिरी हुई संक्रमित पत्तियों को इकट्ठा करें और कम्पोस्ट के गड्ढे में डालकर सड़ा दें या फिर गिरी हुई पत्तियों में 10 प्रतिशत यूरिया के घोल का छिड़काव करना चाहिए ताकि गिरी हुई पत्तियां जल्दी सड़ जाएं और स्कैब की फफूंद को वृद्धि करने का अवसर ही न मिल पाये।

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सेब का कैंकर रोग

अनुसंधान के बाद पता चला है कि भारत में लगभग 13 प्रकार के कैंकर रोग सेब की फसल को प्रभावित करते हैं। जिन्हें लक्षणों के आधार पर नाम दिए गए हैं।

हिमाचल प्रदेश में मुख्यतः छः प्रकार के कैंकर रोग पाये जाते हैं, जिनमें कागजी खाल, धुंएदार, गुलाबी, काला तना, भूरा तना, नेल हैड कैंकर आदि का प्रकोप बगीचों में अधिकतर पाया गया है।

कैंकर रोग एक फफूंदीजनित रोग होता है और यह पौधे के कटे हुए व घाव वाले भाग से फैलना आरंभ होता है, साथ में और कई तरह के घाव भी बनाता है।

सेब का पेपरी बार्क कैंकर

इस रोग को चांदीनुमा पत्तियों के नाम से भी जाना जाता है। इस रोग के होने पर गर्मीयों के मौसम में पत्तियों की सतह पर चांदीनुमा चमक दिखाई देती है। इसके बाद शाखाओं पर फफोलों के रूप में इस रोग की शुरूआत होती है।

रोग से प्रभावित शाखाओं में गोंद बन जाने से पौधों में पानी व पोषक तत्वों का आवागमन रूकने या प्रभावित होने लगता है। फल स्वरूप शाखाएं मुरझाकर सूख जाती हैं।

सेब का धुंएदार कैंकर

सेब के धुंएदार कैंकर रोग में तीन तरह के लक्षण पौधे पर देखे जा सकते हैं। 1. पत्तियों पर आंख के आकार के दाग 2. फल सड़न तथा 3. शाखाओं व तने के कैंकर के रूप में।

सेब के तने व शाखाओं में इस रोग के लक्षण अधिक देखे जाते हैं। रोगग्रस्त तने लाल व भूरे रंग के छोटे-छोटे दबे हुए धब्बे बनते हैं। यह बाद में चक्रित व धुंएदार हो जाते हैं। शाखाओं में इस रोग का विस्तार चौड़ाई की अपेक्षा लंबाई में तीव्र गति से होता है।

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सेब का पिंक कैंकर

इस प्रकार के कैंकर की शुरूआत शाखाओं के दो भागों में बटने वाले स्थान से होती है। पौधों में संक्रमण ऊपर से नीचे की ओर एक साथ फैलता है।

रोग वाले हिस्सों में धंसे हुए हल्के भूरे रंग के धब्बे बनते हैं। यह धब्बे मकड़ी के जाल की तरह से दिखाई देते हैं। सामान्य रूप में कवक जाल शाखाओं की ऊपरी सतह में ही रहता है। बरसांत के मौसम में यह धीरे-धीरे गुलाबी रंग की पपड़ी में बदलने लगता है। इस स्थिति में रोग को कुछ दूरी से भी ठीक से पहचान सकते हैं।

सेब में भूरा तना कैंकर

इस प्रकार के कैंकर में तने पर भूरे रंग के छोटे-छोटे धब्बे के साथ रोग की सुरूआत होती है। फल स्वरूप तने पर हल्के भूरे रंग के घाव बन जाते हैं और जिसके बाद टहनियां सूख जाती हैं।

सेब में नेल हैंड कैंकर

इस प्रकार के कैंकर रोग में प्रारंभिक लक्षण तनों पर कील के सिर की तरह उभरे हुए फफोलों दिखाई देते हैं। बाद में छाल सूखकर उखड़ना शुरू कर देती है, परिणाम स्वरूप तनों सूखने लगते हैं।

बचाव के लिए रोग पनपने वाले वातावरण का प्रबंधन

एक सेब बागवान को अपने बाग में रोग नियंत्रण, प्रबन्धन और बचाव के लिए निम्न बातों का खयाल रखना चाहिए-

मृदाजनित रोगों के पनपने के लिए पौधों के तनों के पास या नर्सरी में खुला पानी या अत्यधिक नमी रोग को पनपने के लिए एक तरह का अनुकूल वातावरण प्रदान करते हैं। इसके प्रबंधन के लिए निम्न उपाय करने चाहिए-

  1. बगीचों और पौधशाला में पौधों व पेड़ों के आस-पास अधिक देर तक पानी इकट्ठा न हो, इसके लिए बजरी या रेत से गहराई वाले स्थानों को पाट दें।
  2. पानी को बाहर निकालने के लिए नालियां खोदकर पानी की निकासी की व्यवस्था करें।
  3. अगर आपकी भूमि का पी-एच मान 6.2 से कम है तो चूने के उपयोग द्वारा अपनी भूमि का पी-एच मान सुधारें।
  4. पौधशाला बनाने से पूर्व खेत की सिंचाई कर 40 से 45 दिनों के लिए 100 से 150 गेज की प्लास्टिक शीट से ढककर मृदा सौरीकरण विधि से भूमि को उपचारित करें।
  5. खेत की मिट्टी में नीम की खली, अखरोट, देवदार, निर्गुण्डी, लहसुन, नैटल आदि की पत्तियों को मिला कर या इनसे तैयार जैव कीटनाशकों को मिलाकर भी मृदाजनित रोगों को नियंत्रित किया जा सकता है।

सेब में यूरोपियन कैंकर

यूरोपियन कैंकर रोग में फफूंद सेब के पुराने कांट-छांट वाले स्थानों, पत्तियों व फलों के घाव की जगह से प्रवेश करती है। यूरोपियन कैंकर के घावों के चारों ओर एक प्रकार का घेरा सा बनता है और जो समय के साथ-साथ बढ़ता रहता है।

सर्दियों के महीनों में पुराने घावों पर फफूंद के बीजाणु उत्पन्न होते हैं और यही बीजाणु रोग को बढ़ाने में मदद करते हैं। यह रोग अक्सर पेड़ की मोटी टहनियों या तने पर घेरा बनाता है, परिणाम स्वरूप टहनियों का अग्र भाग सूख जाता है।

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सेब में यूरोपियन कैंकर का प्रबंधन व बचाव

आपको एक बात गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि विभिन्न उपायों का एकीकृत उपयोग ही आपके बगीचों को रोगरहित रखने में सहायक हो सकता है। इसके लिए आपको निम्न कार्य करने चाहिए-

  1. सेब के पौधों की सिधाई व कांट-छांट इस प्रकार से करें कि सूर्य की रोशनी सीधी शाखाओं पर न पड़े।
  2. जहां तक हो सके मोटी टहनियों को 40 से 60 डिग्री के कोण पर रखें।
  3. फल तुड़ाई के बाद बोर्डो मिश्रण का एक छिड़काव अवश्य करें।
  4. सेब की कैंकर ग्रस्त शाखाओं को काटकर जला देना चाहिए।
  5. जहाँ तक संभव हो पेड़ों में बड़े आकार के घाव बनाने से बचना चाहिए।
  6. पेड़ या पौधों के घावों पर चौबटिया पेस्ट (लाल सिंदूर 800 ग्राम + कॉपर कार्बोनेट 800 ग्राम + अलसी का तेल 1 लीटर) आवश्यक रूप से लगाना चाहिए।
  7. बगीचे में कांट-छांट के बाद र्बोडो मिश्रण (नीला थोथा 2 कि.ग्रा. और बिना बुझा चूना 2 कि.ग्रा. को प्रति 200 लीटर पानी का घोल) का छिड़काव करना चाहिए।
  8. सेब के मुख्य तने पर बोर्डो पेस्ट (नीला थोथा 1 कि.ग्रा., चूना 3 से 5 कि.ग्रा., पानी 9 लीटर, अलसी का तेल 1 लीटर) का लेप वर्ष में दो अवश्य करना चाहिए। लेप करने के लिए ठीक समय मार्च और अक्टूबर या नवंबर होता है।

सेब में विषाणु (वायरस) की तरह लगने वाले रोग

सेब में मुख्य रूप में पाए जाने वाले वायरस रोगों में सेब का मोजेक या चितकारी रोग, क्लोरोटिक धब्बा रोग, स्टेम पिटिंग व स्टेम ग्रूविंग वायरस प्रमुख होते हैं।

इसके अलावा सेब में वायराइड व फाइटोप्लाज्मा का भी प्रकोप होता है। यह एक प्रकार से वायरस की तरह ही पौधों की कोशिकाओं में पनपते हैं। इसकी वजह से मुख्य रूप से एप्पल स्कार स्किन वायराइड, एप्पल रबरी वुड व एप्पल प्रोलिफिरेशन रोग हैं।

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सेब का मोजेक रोग

बसन्त के समय में संक्रमित पौधों की पत्तियों पर हल्के पीले रंग के धब्बे नजर आते हैं। पत्तों की धमनियों के साथ पीली व सफेद धारियां बन जाती हैं। रोग का अधिक प्रकोप होने पर पत्ते मर भी जाते हैं। पत्तों का असमय गिरना व पौधे कमजोर होना भी इस रोग के लक्षण हैं।

सेब में क्लोरोटिक धब्बा रोग

यह रोग सेब के साथ ही नाशपाती, चेरी, प्लम, खुबानी आदि के पौधों को भी संक्रमित करता है। इस रोग के लक्षणों को आमतौर पर पत्तियों में देखा जाता है।

रोग से संक्रमित पौधों की पत्तियों पर धब्बे नजर आते हैं। पत्तियां छोटी आकार की व टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती हैं। इस रोग की संक्रमण क्षमता पौधों तथा प्रजातियों पर निर्भर करती है।

सेब में एप्पल प्रोलिफिरेशन

सेब में इस रोग के लक्षण पौधों पर संक्रमण के समय के आधार पर भिन्न हो सकते हैं। सामान्य रूप में रोगग्रस्त पौधों की कुछ शाखाएं सामान्य दिखाई देती हैं, और कुछ शाखाओं में लक्षण दिख सकते हैं।

रोग से संक्रमित पौधों की कुछ शाखाओं या प्रभावित शाखाओं के अंत में झाडू की तरह छोटी-छोटी कलियां नजर आती हैं।

सेब में स्टैम ग्रूविंग व स्टैम पिटिंग वायरस रोग

इस रोग से संक्रमित ज्यादातर सेब की व्यावसायिक प्रजातियों में रोग के लक्षण नजर नहीं आते हैं। वर्जीनिया क्रेब व अन्य परागण करने वाली प्रजातियों पर रोग के लक्षण देखे जा सकते हैं।

स्टैम ग्रूविंग में संक्रमित वर्जीनिया क्रैब के तने पर लंबे दबे हुए निशान दिखाई देते हैं, इसे तने की छाल को हटाकर आसानी से पहचाना जा सकता है। कुछ पौधों में स्तम्भमूल के सन्धि भाग में उभरी हुई सूजन भी देखती है।

स्टैम पिटिंग वायरस से संक्रमित पौधों में दबे हुए निशान तने की छाल पर दिखाई देते हैं। लेकिन कभी-कभी इससे ग्रसित सेब की वर्जीनिया क्रैब प्रजाति के फल बांसुरी आकार के बन जाते हैं।

सेब का रूबरी वुड रोग

सेब का यह रोग केवल सेब व नाशपाती की प्रजातियों एवं रूट स्टॉक में लगता है। रोग से प्रभावित पौधों के तनों तथा टहनियों में अत्यधिक लचीलापन होता है। जिसके कारण संक्रमित पौधा 2 से 3 वर्षों में जमीन की ओर झुक जाता है।

इस रोग में मुख्य तने की वृद्धि रुक जाती है और बाकी की टहनियां सतह से फूटने लगती हैं। सेब की गोल्डन प्रजाति में यह रोग मुख्य तने में सूजन कर देता है। इस रोग से संक्रमित पौधों की उत्पादन क्षमता घटने के साथ ही फलों का आकार भी छोटा रह जाता है।

सेब में गुच्छेदार जड़ें तथा शिखर पिट्टिका

सेब में गुच्छेदार जड़ों का प्रकोप ज्यादातर पौधशालाओं में पाया जाता हैं। इस रोग में एक ही जगह से कयी सारी जड़ें निकल जाती है और एक झाडू की तरह दिखाई देता है। सेब में शिखर पिट्टिका (क्राउन गॉल) पौधशालाओं व वयस्क बगीचों दोनों ही स्थानों में पाये जाते हैं।

इस रोग में रोगी पौधों में जमीन पर या जमीन के नजदीक पिट्टिका या गॉल बन जाता है। गुच्छेदार जड़ों व शिखर पिट्टिका दोनों के शुरुआती लक्षण एक जैसे ही होते हैं।

पहले-पहले पिट्टिका अथवा गुच्छेदार जड़ें देखने में नर्म व हल्के पीले रंग की होती हैं। धीरे-धीरे समय के साथ यह बढ़कर गुच्छों जैसी हो जाती हैं। सामान्य रूप से पिट्टिका सख्त व गहरे रंग की हो जाती हैं। पिट्टिका का कोई निर्धारित आकार नहीं होता है।

सेब में गुच्छेदार जड़ें व शिखर पिट्टिका रोग कुछ बैक्टीरियाओं एग्रोबैक्टिरियम राईजोजीन्ज तथा एग्रोबैक्टिरियम रेडियोबैक्टर पीवी ट्यूमिफेशिएन्श के कारण होते हैं।

सेब में वायरस रोगों की रोकथाम के उपाय

सेब की फसल में वायरस व इस प्रकार के जीवाणु पौधों की कोशिकाओं में रहते हैं। सेब में फैलाव मुख्य रूप से केवल रोगग्रस्त पौधों से ली गई कलमों के प्रयोग करने से ही सेब में इस प्रकार के वायरस ग्रस्त रोगों का मुख्य कारण होता है।

चूंकि सेब की पौध नई पौधों को तैयार करने में मूलवृंत्तों का प्रयोग भी होता है। ऐसे में अगर मूलवृंत ही वायरस रोग से ग्रसित होगा तो, जितने भी मूलवृंत पौधे उससे तैयार किए जायेंगे वह भी वायरस से संक्रमित होंगे।

जब एक स्वस्थ मूलवृंत पर वायरस संक्रमित कलम ग्राफ्ट की जाती है तो इससे तैयार पौध भी वायरस रोग से ग्रसित होता है।

इस प्रकार से जब पौधे दूरदराज के क्षेत्रों में ले जाए जाते हैं तो यही पौधे उन नये क्षेत्रों के लिए रोग के फैलाव के बाहक बन जाते हैं। एक प्रकार से यह भी कहा जा सकता है कि, रोग के फैलाव एक प्रमुख और बड़ा कारण संक्रमित मलूवृत, कलमें और पौधे होते हैं।

वायरस व वायरस जनित रोगों की रोकथाम के लिए वायरस रहित कलमें, मूलवृंत और पौधों ही प्रयोग में लाए जाने चाहिए। आपको बता दें कि रोगमुक्त पौधे इंडेक्सिंग या थर्मोथिरेपी विधि के प्रयोग द्वारा भी प्राप्त किए जा सकते हैं।

सेब में कॉलर रॉट या रूट रॉट या क्राउन रॉट

सेब के बगीचों में यह रागे फाइटोफ्थोरा कैक्टोरम नामक फफूंद के कारण होता है। आम तौर पर रोग का संक्रमण कॉलर क्षेत्र यानी मिट्टी के साथ लगते हुये भागों से शुरू होता है।

यह फफूंद मुख्यतः कैम्बियम पर संक्रमण करती है तथा इसके संक्रमण के लिए घाव आवश्यक होता है। रोग से संक्रमित पौधों की मिट्टी से लगती छाल सड़कर गहरे भूरे रंग की व स्पंजी हो जाती है।

संक्रमण वाले हिस्से में कैंकर जैसे अजीब से घाव बनते हैं और पौधे में तेजी फैलकर पेड़ के तने को चारों ओर से घेर लेते हैं। इस रोग से संक्रमित पौधों में पोषक तत्वों को अवशोषित करने की क्षमता कम हो जाती है।

पोषक तत्वों की कमी की वजह से संक्रमित पेड़ों को पत्तियों की बैंगनी रंग की नसों, बीमों की सामान्य से अधिक संख्या, विरले व छोटे पत्तों, आकार में छोटे फलों, पत्तों का देरी से निकलना जैसे लक्षणों से आसानी से पहचाना जा सकता है।

एप्पल स्कार स्किन वायराइड

सेब में इस रोग के लक्षण फलों में दिखाई देते हैं। फल लगे बगीचों यह लक्षण जुलाई मध्य में फल में रंग आने पर दिखाई देने लगते हैं।

संक्रमित पेड़ों के फलों पर छोटे गोलाकार धब्बे नजर आते हैं तथा कुछ पेड़ों के फलों में स्टैम के अंत में भूरे रंग की उभरी हुए रस्सैटिंग की तरह लक्षण नजर आते हैं और दरारें पड़ने लगती हैं। रोगग्रस्त फलों की वृद्धि धीमी हो जाती है और फलों की गुणवत्ता भी खराब होने लगती है।

सेब में सीडलिंग ब्लाइट या बीजू पौध का झुलसा रोग

सेब में इस रोग का प्रभाव ज्यादातर पौधशालाओं या नए पौधों में देखने को मिलता है। गर्म जगहें जहाँ मिट्टी का तापमान 300 से 330 सेल्सियस, पी-एच 6.0 तथा मिट्टी में नमी 38 प्रतिशत से अधिक हो, ऐसे स्थानों में यह रोग आसानी से पनपता है।

रोग का कारण सक्लैरोशियम रोल्फसाई नामक फफूंद होती है। यह फफूंद जड़ों में संक्रमण फैलाती है, परिणाम स्वरूप पौधों के पत्ते मुरझाने लगते हैं या लालिमा छा जाती है या फिर वह भूरे रंग के हो जाते हैं।

अंत में रोगग्रस्त बीजू पौधों के पत्ते पूर्णतया मुरझा जाते हैं। रोग के कारण मृत पौधों के बगल में सरसों के दाने के आकार के स्कलोरेशिया नजर आते हैं। इससे यह रोग आसानी से पहचाना जा सकता है।

सेब में मृदाजनित रोगों का प्रबंधन

सेब में मृदाजनित रोगों का प्रबंधन इस बात पर निर्भर करता है कि रोग के कारकों को आप किस प्रकार एक्टिव स्टेज से दूर रखते हैं। मृदाजनित रोगों के प्रबंधन के निम्न सिद्धांतों को प्रयोग में लाया जाना चाहिए-

बगीचों व पौधशालाओं में साफ-सफाई

सेब में मृदा द्वारा फैलने वाले रोगों में साफ-सफाई अहम रोज हो जाता है क्योंकि मिट्टी में इनोकुलम एक थ्रेसहोल्ड लेबिल से बढ जाए तो रोग के आने की सम्भावना भी बढ़ जाती है।

इसलिए पौधशाला और बगीचों से रोगग्रस्त मृत पौधों या उपके अवशेषों को खेतों से निकालकर नष्ट कर देना चाहिए, जिससे मिट्टी में प्राथमिक इनोकुलम कम हो सके।

जिस समय पेड़ सुशुप्तावस्था (नवंबर-दिसंबर) में हो तो प्रभावित जड़ों की मिट्टी को हटाकर रोगग्रस्त जड़ों को काटकर निकाल दें और कटे स्थान पर चौबटिया पेस्ट (एक-एक भाग कॉपर कार्बोनेट और लाल सिंदूर साथ में सवा भाग अलसी का तेल) का लेप कर देना चाहिए।

जैविक नियंत्रकों का उपयोग करें

सेब में मृदाजनित रोगों के प्रबंधन के लिए प्रारंभिक अनुसंधानों में जैविक नियंत्रक भी काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जैविक नियंत्रकों में ट्राइकोडर्मा विरिडी, ट्राइकोडर्मा हारजियानम, एंजेटोबैक्टर एरोजीन्ज, स्यूडोमोनास फ्लोरिसैन्स आदि विभिन्न तरीकों से इन रोगों के नियंत्राण में सहायता प्रदान करते हैं।

उक्त जैविक नियंत्रकों की उपस्थिति के कारण रोगाणु अपना विस्तार नहीं कर पाते हैं और रोग एक सीमा में ही बंधकर रह जाते हैं।

रासायनिक नियंत्रक

किसी भी फसल में रोगों के एक सीमा से अधिक फैलने पर उन्हें कृषि रसायनों की मदद से ही नियंत्रित किया जा सकता है। सेब में भी रोग की अधिता को नियंत्रित करने के लिए रासायनिक उपायों का प्रयोग निम्न प्रकार किया जाता है-

  1. कॉलर/रूट/क्राउन रस्टः पेड़ के तने के चारों ओर 30 सें.मी. के दायरे में मैंकोजेब (600 से 800 ग्राम/200 लीटर पानी) या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड (1000 ग्राम/200 लीटर पानी) या मैटालैक्सिल $ मैंकोजेब (600 ग्राम/200 लीटर पानी) या बोर्डो मिक्स्चर (2 कि.ग्रा. नीलाथोथा $ 2 कि.ग्रा. बुझा हुआ चूना/200 लीटर पानी) के 10 लीटर घोल से सिंचाई करें। यह प्रक्रिया वर्ष में दो बार मार्च व मानसून में अपनाएं।
  2. श्वेत जड़ विगलनः रोग से ग्रसित पौधों को बरसात के दिनों में तीन बार 15-20 दिनों के अंतराल पर कार्बेन्डाजिम (200 ग्राम/200 लीटर पानी) या ऑरियाफंजिन (100 ग्राम) $ कॉपर सल्पेफट (100 ग्राम)/200 लीटर पानी के 10-15 लीटर घोल से उपचारित करें।
  3. सीडलिंग ब्लाइट/बीजू झुलसाः नर्सरी में ग्रसित पौधों की थीरम (600 ग्राम) या ऑरियोफंजिन (80 ग्राम)/200 लीटर पानी के घोल से सिंचाई करें।
  4. गुच्छेदार जड़ें/शिखर पिट्टिकाः पौधे लगाने से पहले एक घंटे तक स्वस्थ कलम किए हुए पौधों को एक प्रतिशत कॉपर सल्फेट मिश्रण (10 ग्राम/लीटर पानी) में डुबोकर रखें, फिर छाया में सुखाकर नर्सरी में लगाएं।

तो दोस्तों आपको “सेब के बगीचों में रोग की पहचान, नियंत्रण, रोग प्रबंधन ” के बारे में दी गयी यह जानकारी कैसी लगी हमें कमेंट बॉक्स में लिखकर जरूर बताईये।

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